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________________ ---[4] . ******* *************************************************** को प्रथम अर्थ के समान मौलिक एवं परम-मान्य बताने का प्रयत्न करते हैं, वे भ्रम में हैं, अथवा वे चाह कर भ्रम फैलाते हैं। उनके ऐसा करने का कारण प्रायः कमजोरी का बचाव करना है। सत्य बात यह है कि - अत्थं भासइ अरहा........कह कर जो छद्मस्थों एवं सकषाइयों के किये अर्थों को, अरिहंत-प्ररूपित अर्थ के समान बतला कर पूर्ण रूप से मान्य करने का आग्रह करते हैं; वे सत्य से दूर चले जाते हैं। ____अर्थ, शब्द का होता है। अर्थ सामान्य भी होता है और विशेष भी। विशेष अर्थ- नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, अवचूरि, दीपिका, टीका, व्याख्या, विवरण आदि कई नामों से दिया जाता है। जब तक वह विशेष अर्थ, सूत्र के लिए बाधक नहीं बनता, तब तक तो चल सकता है किन्तु जहाँ वह · मनमाना चलने लगा कि गड़बड़ी कर देता है। इसलिए सूत्रकार भगवंत ने कहा कि - - "णिरुद्धगं वा वि ण दीहइजा"-टीका - "निरुद्धम्-अर्थस्तोकं दीर्घवाक्यैर्महता शब्ददर्दुर्दुणार्कविटपिकाष्टिकान्यायेन न कथयेत् निरुद्धं वा स्तोककालीनं व्याख्यानं व्याकरणतर्कादि प्रवेशनद्धारेण प्रसक्त्यानुप्रसक्त्या 'न दीर्घयेत्' न दीर्घकालिकं कुर्यात्, तथा चोक्तम्-"सो अत्थो वत्तव्यो जो भण्णइ अक्खरेहिं थोवेहि। जो पुण थोवो बहु-अक्खरेहिं सो होइ णिस्सारो।" . अर्थात् - छोटे अर्थ को शब्दाडम्बर से बढ़ावें नहीं। टीकाकार कहते हैं कि जो अर्थ छोटा है, उसे शब्दाडम्बर से बढ़ा कर बड़ा नहीं करें। जैसे कि आकड़े की लकड़ी को-'अर्कविटपिकाष्ठिका' कह कर व्यर्थ ही शब्दाडम्बर रचने जैसा कार्य नहीं करे अथवा जो बात थोड़े समय में ही पूर्ण होने योग्य है, उसे व्याकरण और तर्कादि के प्रपंच से बढ़ा कर लम्बावे नहीं। कहा भी है कि - 'साधु वही अर्थ कहे जो अल्प अक्षरों में कहा जाये। जो अर्थ थोड़ा होकर बहुत अक्षरों में कहा जाता है, वह नि:सार समझना चाहिए। (सूत्रकृतांग १-१४-२३) .. अधिक बोलने या लिखने वाले, भान भूलकर कुछ का कुछ कर बैठते हैं। इसके उदाहरण में 'ऋषिभाषित' सूत्र का अनुवाद, 'अमरभारती' मासिक-पत्रिका और अमर-साहित्यादि अनेक उपस्थित किये जा सकते हैं। जिनसे अर्थ का अनर्थ हुआ है। अर्थ के नाम पर अधकचरों और स्वच्छन्दों ने कई धांधलियां की हैं, जो चिन्ताजनक हैं। ___जिनागमों का ज्ञान प्रत्येक जैनी को होना चाहिए। किन्तु खेद है कि बहुत-से साधु-साध्वी भी अपने घर के मौलिक ज्ञान से वंचित है। उन्हें मालूम ही नहीं कि हमारे शाही खजाने में कैसे अमूल्य रत्न भरे पड़े हैं। कई दीक्षित होकर प्रखर-वक्ता और सिद्ध-हस्त लेखक बनने और प्रसिद्धि पाने की धुन अपना लेते हैं। हम प्रचार-पत्रों में देखते हैं कि कई छोटे-छोटे साधु और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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