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________________ १८० प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ४ ****** संधियाँ दिखाई नहीं देती। उनकी ऊपर की जंघाएँ कदलि-स्तंभ से भी अतिशय आकार वाली सुन्दर, गोल वर्णादि के छिद्र से रहित अत्यन्त कोमल, पुष्ट, परस्पर मिली हुई, प्रमाणयुक्त तथा शुभ लक्षणों सहित होती है। उनका कटिभाग, चौसर ( खेलने की चौपड़ या शतरंज) की रेखाओं से अंकित पटिये के समान विस्तीर्ण एवं प्रशस्त होता है । नितम्ब - भाग मुख के प्रमाण से दुगुना (चौबीस अंगुल ) विस्तृत, सुबद्ध और पुष्ट होता है। वज्र के समान कृश तथा प्रशस्त लक्षणों से युक्त उनका उदर होता है । शरीर का मध्य-भाग तीन रेखाओं से मण्डित तथा नम्र होता है। रोमावली सूक्ष्म, काली, सम, घन, स्वाभाविक, स्निग्ध, रम्य, ललित, सुकुमाल, कोमल, विभाजित तथा रमणीय होती है। उनकी नाभि गंगा - महानदी के जल में बनते हुए आवर्त के समान दक्षिण- आवर्त वाली सूर्य की किरणों से खिले हुए कमल के समान विकसित तथा गम्भीर होती है। उनकी कुक्षि उन्नत, प्रशस्त सुन्दर तथा पुष्ट होती है, उनके दोनों ओर के पार्श्व, नीचे की ओर झुके हुए, सुन्दर, संगत, प्रमाण युक्तं पुष्ट एवं मनोहर होते हैं। उनकी पीठ की हड्डियाँ दिखाई नहीं देती। शरीर सोने के समान कांति वाला, निर्मल, सुन्दर तथा रोगरहित होता है । उनके दोनों स्तन स्वर्ण कलश समान प्रमाणयुक्त, गोल, परस्पर सटे हुए सुन्दर चुंचुक से युक्त एवं मनोहर होते हैं। उनकी भुजाएँ साँप के समान क्रमशः पतली, स्निग्ध स्पर्श वाली, गोपुच्छ के समान गोल प्रमाणयुक्त नम्र और सुन्दर होती हैं, नख ताम्रवर्ण के तथा हाथ का अग्रभाग मांसल एवं पुष्ट होता हैं। उंगलियाँ पुष्ट तथा कोमल होती है। उनके हाथ की रेखाएँ स्निग्ध होती हैं और रेखाओं से चन्द्र, सूर्य, शंख, चक्र और स्वस्तिकादि शुभ लक्षण वाली आकृतियाँ अंकित होती हैं। पीणुण्णयकक्खवत्थीप्पएसपडिपुण्णगलकवोला चउरंगुलसुप्पमाणकंबुवरसरिसगीवा मसलसंठियपसत्थहणुया दालिमपुप्फप्पगासपीवरपलंबकुंचियवराधरा सुंदरोत्तरोट्ठा दधिदगरयकुंदचंदवासंतिमउलअच्छिद्दविमलदसणा रतुप्पलपउमपत्तसुकुमालतालुजीहा कणवीरमुउलअकुडिलअब्भुण्णयउज्जुतुंगणासा सारयणवकमलकुमुयकुवलयदलणिगरसरिसलक्खणपसत्थअजिम्हकं तणयणा आणामियचावरुइलकिण्हब्भराइसंगयसुजायतणुक सिणणिद्धभुमगा अल्लीण पमाणसुत्तसवणा सुस्सवणा पीणमट्टगंडलेहा चउरंगुलविसालसमणिडाला कोमुड़रयणियरविमलपडिपुण्णसोमवयणा छत्तुण्णयउत्तमंगा अकविलसुसिणिद्धदीहसिरया । शब्दार्थ - पीणुण्णयकक्खवत्थिप्पएसपडिपुण्णगकवोला- उनकी भुजाओं का मूल भागकाँख वस्तिप्रदेश और कपोल पुष्ट उन्नत एवं परिपूर्ण होता है, चउरंगुलप्पमाणकंबुवरसरिसगीवा - गर्दन उत्तम शंख के समान चार अंगुल प्रमाण होती है, मंसलसंठियपसत्थहणुया उनका जबड़ा उत्तम आकृतियुक्त और मांसल होता है, दालिमपुप्फप्पगासपीवरपलंबकुचियवरधरा उनके अधर-नीचे का ओष्ठ दाड़िम के पुष्ट के समान लाल, कुछ लम्बा कुछ संकुचित तथा पुष्ट होता है, सुंदरोत्तरोट्ठा - Jain Education International For Personal & Private Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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