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________________ 316 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ **************************************************************** . होता है, वैसा ही दिखाई देता है, उसमें अन्तर नहीं आता। उसी प्रकार निर्ग्रन्थ मुनिवरों का हृदय स्वच्छ होता है-भीतर और बाहर एक समान। उनमें छुपाने जैसी कोई बात ही नहीं होती। उनके सरल एवं निष्कपट हृदय का दर्शन, उनके चेहरे, उनकी वाणी और उनकी चर्या से ही हो जाता है। 16. सोंडीरे कुंजरोव्व - गजराज के समान शूर। जिस प्रकार हाथी युद्ध में डट जाता है और भयंकर घाव लगने पर भी पीछे नहीं हटता. उसी प्रकार वे शरवीर मनिवर भी परीषह रूपी सेना के सामने डट जाते हैं। वे विपत्तियों से घबड़ा कर पीछे पांव नहीं रखते। . 17. वसभे व्व जायथामे - वृषभ के समान भारक्षम। जिस प्रकार मारवाड़ का धोरी वृषभ, उठाये हुए भार को उत्साहपूर्वक यथास्थान पहुंचाता है, उसी प्रकार वे उत्तम श्रमण स्वीकार किये हुए संयम का, चढ़ते हुए भावों से यथाविधि जीवन पर्यन्त निर्वाह करते हैं। उनके परिणामों में शिथिलता नहीं आती। वे गलियार बैल जैसे नहीं होते, अपितु जातिवंन्त वृषभ के समान होते हैं। 18. सीहेव्व जहा मियाहिवे होइ दुप्पहरिसे - मृगाधिपति सिंह के समान दुष्प्रधर्ष। जिस प्रकार सिंह किसी भी वनचर पशु से पराजित नहीं होता, उसी प्रकार वे श्रमण-सिंह न तो परीषहों से पराजित होते हैं, न मिथ्यात्व और अज्ञान के आक्रमण से भयभीत होते हैं। पाखण्डियों के प्रहार भी उन्हें विचलित नहीं कर सकते। वे सिंह के समान निर्भीक होकर अपनी संयम-यात्रा को आगे बढ़ाते ही रहते हैं। 19. सारय सलिलं व सुद्धहियए - शरद ऋतु के पानी के समान स्वच्छ एवं निर्मल हृदयी। जिस प्रकार वर्षा के समाप्त हो जाने के बाद शरद ऋतु में जल निथर कर निर्मल हो जाता है, उसमें वर्षा के कारण बह कर आई गंदगी और कूड़ा-करकट नहीं रहता, उसी प्रकार संसार-त्यागी श्रेष्ठ श्रमणवरों का हृदय भी निर्मल रहता है। उदय-भाव के प्रवाह के कारण संसारावस्था में विषय-विकार रूपी आई हुई गंदगी, उन संतप्रवरों के हृदय से दूर होकर शुद्धता आ जाती है। उनके पवित्र हृदय में अप्रशस्त राग-द्वेष के लिए स्थान नहीं रहता है। जिस प्रकार शरीर का मैल, निर्मल जल से दूर होता है, उसी प्रकार वे निर्मल आत्माएं, भव्यात्माओं के आत्म-मैल को दूर करने में सहायक होती हैं। 20. भारंडे चेव अप्पमत्ते - भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त / शास्त्रों में आया है कि भारंड पक्षी आकाश में ही उड़ता रहता है। जब वह आहार के लिए पृथ्वी पर आता है, तो पूरी सावधानी के साथ अपने पंखों को फैला कर ही बैठता है और जहाँ खतरे की आशंका हुई कि फौरन उड़ जाता है। उसी प्रकार निर्ग्रन्थ-श्रमण भी अपने ज्ञान-ध्यान रूपी धर्मोद्यान में ही विचरते हैं। वे गृहस्थों के संसर्ग में नहीं रहते। जब उन्हें आहारादि की आवश्यकता होती है, तभी गृहस्थों के घरों में जाते हैं और कार्य होते ही शीघ्र लौट आते हैं। गृहस्थों के यहाँ वे अप्रमत्त-सावधान होकर यह ध्यान रखते हैं कि कहीं उनकी पवित्र साधुता एवं विशुद्ध समाचारी में कोई दोष नहीं लग जाये। जहाँ दोष की आशंका होती है, वहाँ से वे उसी समय चल देते हैं। इस प्रकार वे अपनी संयम-साधना में सदा सावधान रहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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