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________________ निर्ग्रन्थों की 31 उपमाएं 317 ************************* 21. खग्गिविसाणं व्व एगजाए - गेंडे के सींग के समान एकाकी। जिस प्रकार गेंडे के एक ही सींग होता है। वह उस एक ही सींग से अपनी रक्षा करता है, उसी प्रकार निर्ग्रन्थ-अनगार भी राग-द्वेष से रहित एवं आत्मनिष्ठ होकर विचरते हैं। उनका आत्मनिष्ठा रूपी एकाकीपन, रक्षक बन कर उनकी विजय-कूच को आगे बढ़ाता है। 22. खाणुं चेव उड्डकाए - ढूंठ के समान खड़े रहे हुए। जिस प्रकार सूखे हुए वृक्ष का दूँठ, निश्चल खड़ा रहता है। हवा के प्रचण्ड वेग से भी वह नहीं हिलता। उसी प्रकार कायोत्सर्ग में अडोल खड़े हुए मुनिराज, भयंकर उपसर्ग आने पर भी निश्चल और अडिग ही रहते हैं। 23. सुण्णागारे व्व अप्पडिकम्मे - शून्य घर के समान शरीर-संस्कार से रहित। जिस प्रकार सूना और वीरान घर, अस्वच्छ रहता है। उसकी सफाई नहीं होती। उसी प्रकार आत्मार्थी मुनिवर, अपने शरीर की सार-संभाल नहीं करते। देह की सफाई-सजाई की ओर वे ध्यान ही नहीं देते। उनका ध्यान आत्मा की सफाई की ओर रहता है। वे आत्मा को अधिकाधिक स्वच्छ करने में लगे रहते हैं। देहदृष्टि का तो वे गृह-त्याग के साथ ही त्याग कर देते हैं। 24. सुण्णागारावणस्संतो - णिवायसरणप्पदीवज्झाणमिव णिप्पकंपे - शून्य और वायुरहित बन्द गृह में रहे हुए दीपक की तरह अकम्पित। जिस प्रकार वायु-रहित स्थान में दीपक की लौ बुझती नहीं और निष्कम्प होकर जलती रहती है, उसी प्रकार उत्तम संत, शून्य घर आदि में ध्यान धरकर निश्चल खड़े रहते हैं। वे परीषहों के उत्पन्न होने पर भी नहीं डिगते। 25. खुरो चेव एगधारे - उस्तरे की एक धार के समान। जिस प्रकार उस्तरे के एक ही ओर धार होती है, वह एक ओर से ही चलता है, उसी प्रकार निर्ग्रन्थ अनगार की प्रवृत्ति भी एक उत्सर्गमार्ग पर ही होती है। वे अपवाद का आश्रय ही नहीं लेते, क्योंकि अपवाद मार्ग, कमजोरी-विवशता से अपनाया जाता है। उत्तम श्रमण मृत्यु को स्वीकार कर लेते हैं, परन्तु अपने मार्ग से पीछे हटना स्वीकार नहीं करते। ... . 26. अही ब्रेव एगदिट्ठी - सर्फ के समान एक दृष्टि वाले। जिस प्रकार सर्प अपने लक्ष्य की ओर ही दृष्टि रखता है। अलग-बगल की ओर नहीं देखता, उसी प्रकार सुसाधु केवल मोक्ष की ओर ही दृष्टि रख कर आराधना करते रहते हैं। उनका ध्यान मोक्ष की ओर ही रहता है। देव अथवा मनुष्य सम्बन्धी सुख या संसार की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता। . 27. आगासं चेव णिरालंबे - आकाश के समान आलम्बन-रहित। अन्य द्रव्यों के लिए आकाश आधारभूत है, किन्तु आकाश के लिए कोई आधार नहीं है। वह स्वतः अपना और दूसरों का आधार है। इसी प्रकार श्रेष्ठ मुनिवर भी अपने ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र के आश्रय * से ही मोक्ष-मार्ग में विचरण करते हैं। पहाडगता *"तत्थ आलम्बणं णाणं दंसणं चरणं तहा"-(उत्तरा० 24) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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