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________________ निर्ग्रन्थों की 31 उपमाएं 315 **************************************************************** अग्नि अपने को और दूसरों को प्रकाशित करती है वह किसी दूसरे से प्रकाशित नहीं होती, उसी प्रकार तपोधनी निर्ग्रन्थ अपने ज्ञान और तप के प्रभाव से स्वयं देदीप्यमान होकर दूसरे भव्य प्राणियों को भी प्रभावित करते हैं। उन्हें कोई दूसरा प्रभावित नहीं कर सकता। 13. गोसीसचंदणं विव सीयले सुगंधे य - गोशीर्ष-चन्दन के समान शीतल और सुगन्धयुक्त। गोशीर्ष चन्दन शीतल और सुगन्धित होता है। उसके विलेपन से शरीर शीतल और सुगन्धित होता है। उसी प्रकार उत्तम मुनिराज, कषायाग्नि के शान्त हो जाने से शीतल होते हैं और उनके पवित्र चारित्र की सुयश रूपी मिष्ट सुगन्ध चारों और फैलती है। तपस्वी होते हुए भी वे स्वभाव से उग्र नहीं होते। तपस्या की पवित्र अग्नि में कषाय का कचरा भस्म हो जाता है। उनके आत्म-तेज का प्रकाश, उष्ण एवं ज्वलन गुण वाला नहीं, किन्तु चन्द्रमा के समान शीतल प्रकाश देता है। उपासकों में उनके चारित्र की बहुत प्रशंसा होती है। यह उनके चारित्र की सुगन्ध का प्रभाव है। 14. हरयो विव समियभावे - सरोवर के समान शांत। जिस प्रकार हवा के नहीं चलने से सरोवर का जल स्थिर और सम रहता है, उसमें लहरें नहीं उठतीं। उसी प्रकार कषायें उपशांत हो जाने से उन महात्माओं में समत्व आ जाता है। परिस्थिति की विषमता उन्हें उत्तेजित नहीं कर सकती। उनके परिणामों में विचलितता नहीं आती। ... सरोवर के उदाहरण में एक चौभंगी भी बताई जाती है। यथा - . 1. कुछ सरोवर ऐसे भी हैं कि उनमें से पानी निकल कर बाहर बहता है, किन्तु बाहर से भीतर नहीं आता। उसी प्रकार त्यागी-तपस्वी मुनिराज की ज्ञान-गंगा बाहर बहती रहती है। वे दूसरों को ज्ञानामृत पिलाते हैं, किन्तु स्वयं कि ती से ज्ञान ग्रहण नहीं करते। अपने विशिष्ट क्षयोपशम से पूर्ण श्रुतज्ञान प्राप्त करके वे श्रुतकेवली होते हैं या अपने समय के बहुश्रुतत एवं गीतार्थ होते हैं। वे दूसरों को ज्ञानदान देते हैं, परन्तु दूसरे से लेते नहीं। 2. समुद्र में बाहर से पानी आता है, परन्तु बाहर नहीं जाता। उसी प्रकार कई मुनि ऐसे होते हैं : कि वे ज्ञान ग्रहण करते हैं, परन्तु किसी को देते नहीं। सतत ज्ञानाभ्यास में ही लगे रहते हैं। 3. कुछ सरोवर ऐसे भी होते हैं कि जिनमें बाहर से पानी आता भी है और बाहर जाता भी है। उसी प्रकार कई मुनिवर, ग्यारह अंगों का ज्ञान दूसरे मुनियों को भी पढ़ाते हैं और स्वतः भी ज्ञान पढ़ते हैं। 4. ढाई द्वीप के बाहर ऐसे सरोवर हैं कि जिनमें में न तो पानी बाहर से सरोवर में आता और न सरोवर में से बाहर निकलता। उसी प्रकार कई अनगार भगवंत, जिनकल्प धारण करके विचरते हैं। कई श्रुत पढ़ लेने के बाद स्वाध्याय, ध्यान और तपादि में लीन रहते हैं। वे न तो नया ज्ञान पढ़ते हैं और न किसी को पढ़ाते हैं। 15. उग्घोसिय सुणिम्मलं व्व आयंसमंडलतलं व्व पगडभावेण सुद्धभावे - घिस कर कोमल बनाये हुए निर्मल दर्पण के समान प्रकट एवं शुद्ध भाव वाले। जिस प्रकार स्वच्छ दर्पण में जैसा रूप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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