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________________ ३२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ नैरयिकों और देवों के भी छह पर्याप्ति होती है। किन्तु इनमें पांच पर्याप्ति बतलाई जाती है। इसका कारण यह है कि नैरयिकों और देवों के भाषा और मनःपर्याप्ति एक साथ बंधती हैं। इसलिए इन दोनों की पृथक् गणना नहीं करके पांचवां स्थान ही दिया गया है। टीकाकार ने भी लिखा है कि - "भाषामनसोरक्यकालमिति दर्शितम्।" वेदना - लोक में वेदना का अर्थ - 'दुःख-भोग' माना गया है। किन्तु जैन परिभाषा में सुख और दुःख, इन दोनों का वेदन' होना माना है। एक सुख रूप वेदन और दूसरा दुःखमय वेदन। वेदना का अर्थ-अनुभव करना-भोगना होता है, जो साता-सुखरूप भी होता है और दुःख रूप भी। सुखभोग और दुःखानुभव, दोनों ही प्रत्यक्ष हैं और सभी के अनुभव-सिद्ध बात है। नारक प्राणियों का जीवन 'असुहाए वेयणाए' - अशुभ-असाता रूप वेदना प्रधान होता है। . नारकों को दिया जाने वाला लोमहर्षक दुःख किं ते कंदुमहाकुंभिए पयण-पउलण-तवग-तलण-भट्ठभजणाणि य लोहकडाहुकडणाणि य कोट्टबलिकरण-कोट्टणाणि य सामलितिक्खग्ग-लोहकंटग-अभिसरणपसारणाणि फालणविदारणाणि य अवकोडकबंधणाणि लट्ठिसयतालणाणि य गलगंबलुल्लंबणाणि सूलग्गभेयणाणि य आएसपवंचणाणि खिंसणविमाणणाणि विघुटुपणिज्जणाणि वज्झसयमाइकाणि य एवं ते। . ' __ शब्दार्थ - शिष्य पूछता है कि किं ते - वे दुःख कौन-से हैं ? नरक के दुःख बतलाते हुए गुरु कहते हैं, कंदुमहाकुंभिए - कंदु और महाकुंभी में डालकर, पण पउलण - जीवों को पकाया एवं उबाला जाता है, तवगतलणभट्ठभजणाणि - तवे के ऊपर रोटी की तरह सेका जाता है, कड़ाही में तला जाता है, भाड़ में डालकर भूना जाता है, लोहकडाहुकडणाणि - लोहे की कड़ाही में इक्षुरस की बरह डाल कर औटाया जाता है, कोट्टबलिकरणकोट्टणाणि - देवी के आगे बलिदान करने की तरह काया जाता है-शरीर के टकडे-टकडे कर दिये जाते हैं. सामलितिक्खग्गलोहकंटगअभिसरणपसारणाणि - लोह के तीक्ष्ण शूल जैसे शाल्मलि वृक्ष के काँटों पर उन्हें घसीटा जाता है, फालणविदारणाणि - उन्हें लकड़ी फाड़ने की तरह फाड़ा एवं चीरा जाता है, अवकोडकबंधणाणि - हाथ-पैर बांध दिये जाते हैं, लट्ठिसयतालणाणि - सैकड़ों लाठियों से पीटा जाता है, गलगंबलुल्लंबणाणि - गले में फंदा डालकर वृक्ष पर लटका दिये जाते हैं, सुलग्गभेयणाणि - शूल के अग्रभाग से उनके शरीर को भेदा जाता है, आएसपवंचणाणि - झूठे आदेश देकर उन्हें धोखा दिया जाता है खिंसणविमाणणाणि - उन्हें खिंसित और अपमानित किया जाता है, विधुदुपणिज्जणाणि - पापों की घोषणा के साथ उन्हें वध्य-भूमि पर ' ले जाते हैं, वझसयमाइकाणि - वध्यजनित सैकड़ों प्रकार के दुःख दिये जाते हैं; एवं ते - इस प्रकार नारक जीवों को दुःख भोगना पडता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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