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________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ **#### ##### ######### ############# शब्दार्थ - कुरंग-रुरु - कुरंग और रुरु जाति के मृग, सरभ - अष्टापद, चमर - चमरी गाय, संबर - सांभर, उरभ- मेंढा, ससय - खरगोश, पसय - वनचर पशु विशेष, गोण - बैल, रोहिय - रोहित नाम का पशु हय - घोड़ा, गय - हाथी, खर - गधा, करभ - ऊँट, खग्ग - गेंडा, वाणर - बन्दर, गवय-रोझ, विग- भेडिया. सियाल- गीदड.कोल-सअर. मज्जार-बिल्ली.कोलसणहबड़ा सूअर, सिरियंदलगावत्त - श्रीकंदलक और आवर्त नाम के एक खूर वाले पशु, कोकंतिय - लोमड़ी, गोकण्ण - गोकर्ण-यह दो खुर वाला होता है, मिय - मृग, महिस - भैंसा, वियग्य - व्याघ्र, छगल - बकरा, दीविय - तेंदुआ, साण - जंगली कुत्ता, तरच्छ - तरक्ष-जरखं, अच्छभल्ल - रीछ भालू, सहुलसीह - सार्दूल सिंह, चिल्लल - चित्तल, एवमाई - इत्यादि, चउप्पयविहाणाकए - चतुष्पद पशुओं के भेद हैं। भावार्थ - कुरंग और रुरु जाति के मृग, अष्टापद, चमरी गाय, सांभर, मेंढा, खरगोश, पसर, बैल, रोहित, घोड़ा, हाथी, गधा, ऊँट, गेंडा, बन्दर, रोझ, भेडिया, जम्बूक, सूअर, मार्जार, बड़ा सूअर, श्रीकंदलक, आवर्त, लोमड़ी, गोकर्ण, मृग, महिष, व्याघ्र, बकरा, तेन्दुआ, जंगली कुत्ता, तरक्ष, भालू, सार्दुल सिंह, चित्तल इत्यादि चतुष्पद जीवों के अनेक भेद हैं, जिन्हें पापीजन मारते हैं। . . . उरपरिसर्प जीवों की हिंसा अयगर-गोणस-वराह-मउलि-काउदर-दब्भपुप्फ-आसालिय-महोरगोरग विहाणकए य एवमाई।। शब्दार्थ - अयगर - अजगर, गोणस - एक प्रकार का सर्प,जिसके फण नहीं होता, वराह - दृष्टि-विष सर्प, मउलि - मुकुली-जिसके फण होता है, काउदर - सामान्य सर्प, दम्भपुष्फ - : दुर्भपुष्प-एक जाति सर्प, असालिय - सर्प विशेष, महोरग - बड़ा सर्प, उरगविहाणाकए - ये सर्प, जाति के भेद हैं। भावार्थ - अजगर, गोणस, वराहि, मुकुली, काकोदर, दर्भपुष्प, आसालिक और महोरग आदि, सों के भेद हैं। विवेचन - उपरोक्त सूत्र में उरपरिसर्प जाति के-पेट घसीटकर चलने वाले-सर्प जाति के पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का वर्णन है। इसमें आसालिक का परिचय देते हुए टीकाकार ने लिखा है कि यह.सर्प बारह योजन तक लम्बा होता है और सम्मूछिम होता है। इसकी आयु अन्तर्मुहूर्त की होती है। यह भूमि के भीतर उत्पन्न होता है। जब किसी चक्रवर्ती, वासुदेव आदि के सामूहिक विनाश का समय निकट आता है, तब यह उनकी नक-स्कन्धावार के नीचे अथवा किसी ग्रामादि बस्ती के विनाश के समय उसके नीचे उत्पन्न होते हैं। इनके उत्पन्न होने पर पृथ्वी का वह भाग पोला हो जाता है और वह सेना या ग्राम उस पोली भूमि में उतर कर नष्ट हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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