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________________ अहिंसा के विशुद्ध दृष्टा 217 *************************************************************** पूर्वार्द्धक - दिन का प्रथम आधा हिस्सा व्यतीत होने के बाद-दोपहर दिन चढ़ने के बाद आहार लेने वाले। एकासनिक - सदैव एक आसन से बैठकर ही आहार करने वाले। निर्विकृतिक - विकृति-दुग्ध, दही, घृत, तेल आदि स्निग्ध तथा गुड़, शक्कर युक्त मिष्ट पदार्थ को छोड़कर आहार लेने वाले। ___भिन्नपिण्डपातिक - टूटे और बिखरे हुए चूरे की गवेषणा करने वाले। साबित रोटी, लड्ड आदि नहीं लेकर टुकड़े होकर पृथक् हो चुके ऐसे या दाता द्वारा पात्र में डालते समय बिखर जाये ऐसे आहार के याचक। परिमित पिण्डपातिक - वृत्ति संक्षेप कर, निर्धारित स्वल्प घरों में ही आहार के लिए जाना अथवा वस्तु को संक्षेप मात्रा में लेने का निर्धारित करके जाना। अरसाहारक - रस-स्वादरहित, हींग आदि के बघार रहित वस्तु का आहार करने वाले। . विरसाहारक - पुराना होकर विरस-निःसार बने हुए धान्य का आहार करने के अभिग्रह वाले। - उपशान्तजीवी - प्राप्त-अप्राप्त में समभाव रखकर उद्विग्न नहीं होने, वचन और वदन की भृकुटी से भी रोष व्यक्त नहीं होने देने वाले। प्रशान्त जीवी - मन में क्रोध रोष या ईर्षा को उत्पन्न नहीं होने देने वाले। विविक्त जीवी - निर्दोष जीवन वाले, एकत्वादि भावना युक्त जीवन वाले। अक्षीरमधुसर्पिक - दूध, मधु और घृतरहित आहार करने वाले। अमद्यमांसिक - मद्य और मांर नहीं लेने वाले। स्थानातिक - उठने-बैठने के स्थान को संक्षिप्त करके मर्यादित स्थान रखने वाले। . प्रतिमास्थायिक -भिक्षुकी एक मासिकी आदि प्रतिमा के पालक। स्थान उत्कुटुक - एक स्थान पर उकडु आसन से बैठने वाले। वीरासनिक - वीर आसन से बैठने वाले। सिंहासन पर बैठे हुए पुरुष के नीचे से सिंहासन निकाल लेने पर, पुरुष की जैसी बैठक रहती है, उसी आसन से रहने वाले। केवल पाँवों पर ही शरीर को टिका कर सिंहासन के आकार से बैठने वाले। नैषधिक - दृढ़ आसन से बैठने वाले। दण्डायतिक - दण्ड के समान एक स्थान पर लम्बे रहकर ध्यान करने वाले। लगण्डशायिक - उस प्रकार शयन करना कि जिससे दोनों पाँवों की एड़ियाँ और मस्तक पर ही सारा शरीर टिका रहे और शेष भाग पृथ्वी को स्पर्श नहीं करे। एकपाश्विक - एक ही करवट से शयन करने वाले। आतापक - शीतकाल में खुले स्थान में रात को और उष्णकाल में दिन में, शीत और उष्ण का परीषह सहन करते हुए ध्यान करने वाले। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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