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________________ निग्रन्थी की 31 उपमाए 311 **************************************************************** कर किनारे तक पहुंच जाता है और थोड़े समय में ही संसार से उत्तीर्ण होकर सिद्धि नामक शाश्वत स्थान पर पहुंच कर अनन्त जीवन प्राप्त कर लेता है। उसके संसार का सर्वथा अन्त हो जाता है। उसके समस्त दुःख नष्ट हो जाते हैं। वह परमानन्द में लीन-परमात्मा हो जाता है। छिण्णगंथे - ग्रंथी-मन में पड़ी हुई ममत्व की गाँठ, स्नेह-पाश अथवा अनन्तानुबन्धी कषाय की गाँठ को तोड़-फोड़ कर नष्ट करने वाला, पाठान्तर में, 'छिण्णसोए'-शब्द है। इसका अर्थ है-छिन्नशोक-जिसका शोक (चिन्ता. खेद, प्रिय-वियोग और अप्रिय संयोग से होने वाला रंज) नष्ट हो चका अथवा छिन्न-श्रोत-जिसका संसार में भटकाने वाला आस्रव का श्रोत नष्ट हो चुका है। णिरुवलेवे - निरुपलेप-उपलेप रहित। कर्म के उपलेट से रहित। साधक अवस्था में ऐसा निर्ग्रन्थ, कर्म-लेप से सर्वथा रहित या अबन्धक नहीं होता। उसके सातों कर्मों का बन्ध होता रहता है, किन्तु वह बन्ध हल्का, अल्प प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश वाला और शीघ्र नष्ट होने योग्य होता है। बन्ध की अपेक्षा निर्जरा अत्यधिक होती है तथा वह शीघ्र ही सर्वथा निर्लेप होने वाला होता है। इसीलिए उसे निर्लिप्त कहा गया है। इस सूत्र में निर्ग्रन्थ-श्रमण की मोह-मारक साधना का ही विविध गुण-दर्शक शब्दों में बहुत ही उत्तमता के साथ यथातथ्य वर्णन किया गया है। ऐसे उत्तम साधक विश्व-पूज्य होते हैं। इनका आदर्श एवं उद्दात्त चरित्र भव्यात्माओं के लिए प्रेरणास्पद होता है। . . निर्ग्रन्थों की 31 उपमाएं - सुविमलवरकंसभायणं व मुक्कतोए, संखे विव णिरंजणे, विगयरागदोसमोहे, कुम्मो विव इंदिएसुगुत्ते, जच्चकंचणगं व जायरूवे, पोक्खरपत्तं व णिरुवलेवे, चंदो विव सोमभावयाए, सूरोव्व दित्ततेए, अचले जह मंदरे गिरिवरे, अक्खोभे सागरोव्व थिमिए, पुंढवी व्व सव्व-फाससहे, तवसा च्चिय भासरासि-छण्णिव्व जायतेए, जलिययासणेविव तेयसा जलंते, गोसीसं चंदणं विव सीयले सुगंधे य, हरयो विव समियभावे, उग्घोसियसुणिम्मलंव्व आयंसमंडलतलं व्व पागडभावेण सुद्धभावे, सोंडीरे कुंजरोव्व, वसभेव्व जायथामे सीहेव्व जहा मियाहिवे होइ दुप्पधरिसे, सारयसलिलंव्व सुद्धहियये, भारंडे चेव अप्पमत्ते, खग्गिविसाणं व्व एगजाए, खाणुं चेव उड्ढकाएं, सुण्णागारेव्व अपडिकम्मे, सुण्णागारावणस्संतो णिवायसरणप्पदी-वज्झाणमिव णिप्पकंपे, जहा खुरो चेव एगधारे, जहा अही चेव एगदिट्ठि, आगासं चेव णिरा-लंबे, विहगे विव सव्वओ विप्पमुक्के, कयपरणिलए जहा चेव उरए, अप्पडिबद्धे अणिलोव्व, जीवोव्व अपडिहयगई। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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