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________________ 312 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रृं० 2 अ०५ **************************************************************** . शब्दार्थ - सुविमलवरकंसभायणं व - निर्मल, उत्तम, कांस्य भाजन के समान, मुक्कतोए - स्नेह-बंधन से रहित, संखे विवणिरंजणे- शंख के समान निर्मल, विगयरागदोसमोहे - राग, द्वेष और मोह से दूर, कुम्मो विव इंदिएसुगुत्ते - कछुए के समान इन्द्रियों के विषय में गुप्त, जच्चकंचणगं व जायसवे - जाति सम्पन्न सुवर्ण के समान अपने शुद्ध स्वरूप में रहे, पोक्खरपत्तं व णिरुवलेवे - पद्म-पत्र के समान भोग के लेप से रहित, चंदो विव सोमभावयाए - चन्द्र के समान सौम्य भाव वाले, सूरोव्व दित्ततेए - सूर्य के जैसे तपस्या के तेज वाले, अचले जह मंदरे गिरिवरे - मेरु पर्वत के समान अचल, अक्खोभे सागरो व्व थिमिए - क्षोभ-रहित सागर के समान शान्त-भाव वाले, पुढवी व्व सव्वफाससहे - पृथ्वी के समान सभी स्पर्शों को सहने वाले, तवसा च्चिय भासरासि छण्णिव्व जायतेएभस्म की ढेर से ढकी हुई तपस्या रूपी अग्नि के सदृश-बाहर से म्लान परन्तु अन्दर से प्रदीप्त, जलियहुयासणेविवतेयसाजलंते - जलती हुई अग्नि के समान ज्ञान रूप तेज से जलते हुए, गोसीसचंदणं वित्र सीयले - गोशीर्ष-चन्दन के समान शीतल और शील रूपी सुगन्ध वाले, हरयो विव समियभावेसरोवर के समान समभाव वाले, उग्घोसिय सुणिम्मलं व्व आयसमंडलतलं व्व - अच्छा घिसा हुआ अत्यन्त निर्मल दर्पण के तल के समान, पागडभावेण सुद्धभावे - प्रकट-निष्कपट भाव से शुद्ध हृदय वाले, सोंडीरे कुंजरोव्व - हाथी के समान परीषह सैन्य के लिए शूर, वसभेव्व जायथामे - वृषभ के समान जात-स्थाम, सीहेव्व जहा मियाहिवे - मृगपति सिंह के समान, होइ दुप्पधरिसे - दुष्प्रवर्ण्य होता है, सारय सलिलं व्व सुद्धहियए - शरद् काल के पानी के समान शुद्ध हृदय वाला, भारंडे चेव अप्पमत्ते - भारंड पक्षी के समान प्रमाद रहित, खग्गिविसाणं व एगजाए - गेंडे के सींग के समान एक भूत, खाणुंचेव उड्डकाए - खूटे के समान कायोत्सर्ग में शरीर को स्थिर खड़ा रखने वाले, सुण्णागारेव्व अप्पडिकम्मे - शून्य घर के समान देह की संभाल नहीं करने वाले, सुण्णांगारावणस्संतो - शून्य-घर में वर्तमान-रहा हुआ, णिवायसरणप्पदीवज्झाणमिव णिप्पकंप्पे - वायु-रहित घर में दीप की बत्ती की तरह अकम्प, जहा खुरो चेव एगधारे - छुरे के जैसे एकधार वाले, जहा अही चेव एगदिट्ठी - सर्प के जैसे मोक्ष साधन रूप एक दृष्टि वाले, आगासं चेव णिरालंबे - आकाश के समान बाह्य आलम्बन-रहित, विहगे विव सव्वओ विप्पमुक्के - विहग-पक्षी के समान सबसे विमुक्त, कयपरणिलए जहा चेव उरए - सर्प के समान पर गृह में रहने वाला, अपडिबद्धे अणिलोव्व - वायु के समान प्रतिबंध रहित, जीवोव्य अपडिहयगई - जीव के समान अप्रतिहत गति वाले। विवेचन - द्रव्य और भाव परिग्रह से रहित निर्ग्रन्थ महात्माओं के उदात्त चरित्र का वर्णन करने के बाद अब आगमकार, विविध उपमाओं से उपमित करते हुए इस सूत्र में उन महात्माओं की महानता बता रहे हैं। 1. सुविमलवरकंसभायणं व मुक्कतोए - कांस्य-पात्र के समान निर्लिप्त शुद्ध। जिस प्रकार कांसी के पात्र पर पानी नहीं ठहरता और उस पर से फिसल जाता है, उसी प्रकार मुनिराज भी स्नेह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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