________________ 310 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०५ *#############**************************** है। वह बाह्य और आभ्यन्तर तपोपधान में सदैव भली प्रकार से उद्यत रहता है। वह क्षमाशीलदमितेन्द्रिय मुनि स्व-पर हितकारी होता है। ईर्या-समिति, भाषा-समिति, एषणा-समिति, आदान-भांडमात्र निक्षेपणा-समिति और उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-सिंघाण परिस्थापनिका समिति, इन पांच समितियों से वह युक्त है। मन-गुप्ति, वचन-गुप्ति और काय-गुप्ति-इन तीन गुप्तियों से वह सदैव गुप्त (आत्म-रक्षित) रहता है। अपनी इन्द्रियों को सदैव गुप्त रख कर विषयों की ओर जाने और विकारी बनने से रोक रखता है। उसका ब्रह्मचर्य सुरक्षित है। वह समस्त संग-सम्बन्ध का त्यागी है, वह लज्जावान् (पाप एवं अनाचार से असंयमी प्रवृत्ति से लजित होने वाला) है। ऐसे श्रमण, संयम रूपी धन से धनवान्-धन्य हैं, तपस्वी हैं, क्षमावंत हैं, जितेन्द्रिय हैं, उत्तम गुणों से सुशोभित अथवा शुद्ध हैं, निदान से रहित हैं, शुभ लेश्या से युक्त हैं, ममत्व रहित हैं और अकिंचन-परिग्रह से रहित हैं। ऐसे निष्परिग्रही निर्दोष निर्ग्रन्थ, बाह्य एवं आभ्यन्तर ग्रंथियों को नष्ट कर देते हैं और कर्म-लेप से रहित हो जाते हैं। विवेचन - इस सूत्र में निर्ग्रन्थ साधकों का अन्तर्दर्शन कराया गया है। कितना भव्य एवं उदात्त है-उन श्रमण-श्रेष्ठों का चरित्र? कैसे आदर्श निर्ग्रन्थ होते हैं-जिन धर्म में? णिस्संगे - निस्संगता-संसार के संयोग-सम्बन्धों से रहित होकर साधना में अनुरक्ति रखने वाले ही सच्चे निर्ग्रन्थ होते हैं। जो आत्म-साधना की उपेक्षा कर के लोक-साधना राष्ट्र सेवा या लौकिक प्रवत्ति में लग जाये. स्नेह एवं प्रेम सम्बन्ध बनाते फिरें, वे न तो नि:संग होते हैं और न निर्ग्रन्थ साध हो सकते हैं। निर्ग्रन्थ-श्रमणत्व की प्रथम शर्त है-लौकिक संयोग-सम्बन्ध का त्याग। उत्तराध्ययन का प्रारम्भ ही "संजोगाविप्पमुक्कस्स" पद से हुआ है। विनयधर्म की सर्वसाधना, नि:संगत्व की प्राप्ति पर ही हो सकती है। जिसकी साधना आत्म-शुद्धि के लिए-संसार से विमुक्त होने के लिए हैं, उसे तो संसार से नि:संग ही रहना चाहिए। ऐसा पवित्र साधक ही संसार से पार हो सकता है। .. णिम्ममे णिण्णेहबंधणे - चाहे माता, पिता, भाई, भगिनी हो या पत्नी-पुत्रादि हो, किसी भी जीव और धन-धान्य, वस्त्रालंकार यावत् शब्दादि अजीव द्रव्य तथा स्थान एवं काल के प्रति ममत्व भाव एवं स्नेह बंधन भी नि:संगता में बाधक होता है। मुक्ति की साधना में ममत्व और स्नेह बाधक है, विरोधी है और बन्धन रूप है। मुक्ति-पथ का पथिक, इन बन्धनों को तोड़ कर ही मुक्त हो सकता है। वासीचंदणसमाण कप्पे - जिस प्रकार वसूले से छेदने-काटने पर भी चन्दन वसूले की धार को भी.सुगन्ध ही देता है, उसी प्रकार साधु भी म्लेच्छ लोगों से मार-पीट, अंगच्छेद या मृत्यु के समान भयंकर कष्ट होने पर भी द्वेष नहीं करे और अनुरागी उपासक से वंदना-स्तुति और सत्कार-सम्मान पाकर भी उस पर राग-रहित होकर समभाव में ही रहे। न तो अनुकूल पर राग करे और न प्रतिकूल पर द्वेष करे। राग-द्वेष नष्ट होने पर ही वीतरागता प्रकट होती है। ___ संसारंतट्ठिए - निर्ग्रन्थता की यथातथ्य साधना करने वाला श्रमण अनादि संसार-सागर को पार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org