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________________ १५४ ***************** मिथ्यादृष्टि कुतर्कियों के इस प्रकार के कुतर्क का उल्लेख सूत्रकृतांगं अ. ३ उ. ४ गाथा १० से १२ तक में हुआ है । भोगासक्त कुतीर्थियों ने ऋतुदान को धार्मिक विधान बना दिया और आराध्य देव के स्त्री-सहवास को भी सिरोधार्य कर लिया। जैनदर्शन स्त्री- सहवास का सर्वथा निषेध करता है। इससे अधर्म एवं पाप मानता है। प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ४ *********************************** चक्रवर्ती के विशिष्ट भोग भुजो य असुर- सुर- तिरिय-मणुयभोगरइविहारसंपउत्ता य चक्कवट्टी सुरणरवइ सक्कया सुरवरुव्व देवलोए । शब्दार्थ - भुज्जोय पुनः असुरसुरतिरियमणुय असुर देव, तिर्यंच और मनुष्य सम्बन्धी, भोगरइविहारसंपत्ता - भोग-विलास में आसक्त हो कर क्रीड़ा करने वाले, चक्कवट्टी - चक्रवर्ती का, सरणरवइसक्कया - देव और नरेश भी सत्कार करते हैं, सुरवरुव्व - देवेन्द्र के समान, देवलोक देवलोक में । - Jain Education International भावार्थ - चक्रवर्ती महाराजा, जिनका देवलोक के देवाधिपति इन्द्र के समान, हजारों देव और नरेश सत्कार करते । वे चक्रवर्ती नरेन्द्र असुर, देव, तिर्यंच और मनुष्य सम्बन्धी भोग-विलास में अत्यन्त आसक्त हो कर विविध प्रकार की क्रीड़ा करते हैं। चक्रवर्ती - छह खंड के विजेता, भोक्ता एवं शासक। हजारों देवों और राजाओं द्वारा सेवित । मनुष्य सम्बन्धी भौतिक ऋद्धि-सम्पत्ति, शक्ति, बल, प्रभाव और सर्वोच्च अधिकारों से परिपूर्ण नरेन्द्र । चक्रवर्ती का राज्य विस्तार' - भरह-णग-नगर-निगम जणवय- पुरवर- दोणमुह-खेड़- कब्बड - मडंब-संवाहपट्टणसहस्स-मंडिगं थिमियमेयणियं एगच्छत्तं ससागरं भुंजिऊण-वसुहं । शब्दार्थ - भरहणग - भरत क्षेत्र के सहस्रों पर्वत, नगर-निगम जणवय नगर निगम, जनपद, पुरवर दोणमुह - पुरवर - राजधानी द्रोणमुख - जहाँ जलप और स्थल मार्ग से आयात-निर्यात हो, खेड कब्बड - खेट-मिट्टी के परकोटे वाले, कर्बट - थोड़ी बस्ती वाले गांव, मडंब जिसके निकट कोई दूसरा गांव नहीं हो, संवाह - धान्यादि रक्षक दुर्ग, पट्टण जहाँ सभी प्रकार की वस्तुएं मिल सकें, सहस्समंडियं - हजारों से मण्डित, थिमियमेयणियं निर्भीक प्रजाजनों से सम्पन्न, एगच्छत्तं - एकछत्र - एक ही अपने ही रक्षण में, ससागरं समुद्र सहित, भुंजिउण वसुहं वसुधा-पृथ्वी का भोग करते हैं । भावार्थ- चक्रवर्ती नरेन्द्र का भरत क्षेत्र के सहस्रों पर्वतों, सहस्रों नगरों, निगमों, देशों, राजधानियों, द्रोणमुखों, खेड़ों, कर्बटों, मडम्बों, संबाहों और पत्तनों से मण्डित, छह खण्ड में बसे हुए निर्भीक प्रजाजनों से युक्त, समुद्र पर्यंत एक छत्र राज्य होता है। वे उस समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का उपभोग करते हैं । - For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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