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________________ 214 . प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ० 1 ***** ******* ************************************ चारण - आकाश में गमन करने की शक्ति वाले-जंघाचारण। . विद्याचारण - विद्या के बल से आकाश में गमन करने की शक्ति वाले। चउत्थभत्तिएहिं एवं जाव छम्मासभत्तिएहिं उक्खित्तचरएहिं णिक्खित्तचरएहिं अंतचरएहिं पंतचरएहिं लूहचरएहिं समुयाणचरएहिं अण्णइलाएहिं मोणचरएहिं संसट्ठकप्पिएहिं तज्जायसंसट्ठकप्पिएहिं उवणिएहिं सुद्धेसणिएहि संखादत्तिएहिं दिट्ठलाभिएहिं पुटुलाभिएहिं आयंबिलिएहिं पुरिमडिएहिं एक्कासणिएहिं णिविइएहिं भिण्णापिंडवाइएहिं परिमियपिंडवाइएहिं अंताहारेहिं पंताहारेहिं अरसाहारेहिं विरसाहारेहि लूहाहारेहिं तुच्छाहारेहिं अंतजीविहिं पंतजीविहिं लूहजीविहिं तुच्छजीविहिं उवसंतजीविहिं पसंतजीविहिं विवत्तजीविहिं अखीरमहसप्पिएहिं अमञ्जमंसासिएहिं ठाणाइएहिं पडिमंठाईहिं ठाणुक्कडिएहिं वीरासणिएहिं णेसज्जिएहिं डंडाइएहिं लगंडसाईहिं एगपासगेहिं आयावएहिं अप्पावरहिं अणिटुभएहिं अकंडुयहेहिं धुयकेसमंसुलोमणएहिं सव्वगायपडिकम्म-विप्पमुक्केहिं समणुचिण्णा सुयहरविइयत्थकायबुद्धीहिं धीरमइबुद्धिणो य जे ते आसीविसउग्गतेयकप्पां णिच्छयववसायपज्जतकयमईया णिच्चं सज्झायज्झाणअणुबद्धधम्मज्झाणा पंचमहव्वयचरित्तजुत्ता समियासमिइसु समियपावा छव्विहजगवच्छला णिच्चमप्पमत्ता एएहिं अण्णेहिं य जा सा अणुपालिया भगवई। शब्दार्थ - चउत्थभत्तिएहिं एव जाव छम्मासभत्तिएहिं - उपवास से लेकर छह मास तक की तपस्या करने वाले, उक्खित्तचरएहिं - उत्क्षिप्तचरक, णिक्खित्तचरएहिं - निक्षिप्त चरक, अंतचरएहिं पंतचरएहिं लूहचरएहिं - अत, प्रान्त और रूक्ष आहार से ही अपना निर्वाह करने वाले, समुयाणचरएहिंसामुदानिक भिक्षा लेने वाले, अण्णइलाएहिं - अज्ञात घरों से भिक्षा लेने वाले, मोणचरएहिं - मौन रहकर आहार लेने वाले, संसट्ठकप्पिएहिं - जिस हाथ में या पात्र में अन्न लगा हुआ है, उसी हाथ या पात्र से आहार लेने वाले, तज्जायसंसट्ठकप्पिएहिं - जो अन्न लेना है, वही अन्न यदि हाथ और पात्र में लगा हुआ हो, तो उसके यहाँ अन्न लेने का अभिग्रह करने वाले, उवणिएहिं - निकटवर्ती आहार लेने का , अभिग्रह करने वाले, सुद्धेसणिएहिं - शंकित आदि दोषों को टाल कर शुद्ध आहार ग्रहण करने वाले, संखादत्तिएहिं - दत्तियों की संख्या से आहार लेने वाले, दिदुलाभिएहिं - दिखाई देते हुए स्थान से लाये हुए आहार को ग्रहण करने वाले, अदिट्ठलाभिएहि - पहले कभी न देखे हुए मनुष्यों से दिये जाने वाले आहार को ग्रहण करने वाले, पुटुलाभिएहिं - पूछने पर आहार ग्रहण करने वाले, आयंबिलिएहिंआयम्बिल तपस्या करने वाले, पुरिमडिएहिं - पुरिमड्ड आहार ग्रहण करने वाले, एक्कासणिएहिं - एकाशन तप करने वाले, णिव्विइएहिं - विगय-रहित आहार करने वाले, भिण्णपिंडवाइएहिं - टूटे हुए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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