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________________ - -- अहिंसा के विशुद्ध दृष्टा 213 *************************** विवेचन - जिन महापुरुषों, ऋषि-महर्षियों और जिनेश्वर भगवंतों ने अहिंसा भगवती का आचरण किया, उनकी विशिष्टता का परिचय इस सूत्र में दिया गया है। आमाषधि लब्धिधारी - उत्तम साधन से जिनमें ऐसी विशिष्ट शक्ति उत्पन्न हुई कि जिनके शरीर के स्पर्श से ही रोगी के समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं, ऐसी विशिष्ट शक्ति के धारक महात्मा। खेलौषधिधारी - जिनका श्लेष्म सुगन्धित होता है और रोगनाशक भी। . जल्लोषधि लब्धिधारी - जिनके कान, मुख आदि का मैल ही रोगनाशक हो। विप्रौषधि लब्धिधारी - विप्रौषधि (अथवा विपुडौषधि)-जिनका मल-मूत्र सुगन्धित एवं रोगनाशक होता है। सर्वांषधि लब्धिधारी - जिनके शरीर के आँख, कान, नाक आदि सभी इन्द्रियों को मैल औषधिरूप हो। बीजबुद्धि वाले - बीज के समान फलित होने वाली बुद्धि के धारक। एक बीज से सैकड़ों, हजारों और लाखों बीज उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार एक अर्थ को जानकर अनेक अर्थों के जानने की क्षयोपशमजन्य शक्ति वाले। . कोष्ठबुद्धि वाले - कोठे में भरा हुआ धान्य, बहुत काल तक सुरक्षित रहता है, तदनुसार प्राप्त अर्थबोध को चिरकाल तक धारण करने को बुद्धि वाले। पदानुसारी बुद्धि वाले - एक पद सुनकर बिना सुने ही अनेक पदों को जान लेने की बुद्धि वाले। सूत्र के अवयव रूप एक ही पद प्राप्त होने पर अनेक पदों को स्वत: जानने की बुद्धि वाले। सम्भिन्न-श्रोत लब्धि वाले- शरीर के सभी अवयवों से सुनने की शक्ति वाले। श्रुतधर - आचारांगादि आगमों के धारक। सरि - मनोबली- दृढ़ मनोबल वाले-जिनका मन अत्यन्त दृढ़ एवं शक्ति वाला है। वचनबली-जिनके वचन, दुर्वादि के तर्क हेतु आदि को नष्ट करने की शक्ति वाले हैं। कायबली - कठोरतम परीषह उत्पन्न होने पर भी जो शान्ति से सहन करते हैं। इन जानबली-मति आदि ज्ञान से जिनका आत्मबल बढा है। दर्शनबली - सम्यग्दर्शन से जिनकी आत्मा बलवान् है। चारित्रबली- विशुद्ध चारित्र के बल से जिनकी आत्मा बलवान् है। खीरास्त्रवी- जिनके वचन, श्रोता को दूध समान मधुर लगे। मधुरास्त्रवी- जिनकी वाणी श्रोताओं को मधु (शहद) के झरने के समान मीठी लगे। सर्पिरास्त्रवी - जिनके वचन श्रोताओं को घृत-पान के समान पुष्टिकारक लगे। अक्षिणमहानसिक लब्धि वाले - समाप्त नहीं होने वाले भोजन की लब्धि के धारक-इस लब्धि वाले मुनि, अपने अकेले के लिए लाए हुए भोजन के पात्र में से अन्य लाखों मनुष्यों को तृप्ति पर्यन्त आहार करा सकते हैं। उस पात्र का आहार तब समाप्त होता है, जबकि स्वयं भोजन कर लेते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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