SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०२ है। भव परम्परा बढ़ाता है। झूठ का पाप, पाप ही से परिचय करवाता हुआ बहुत लम्बे काल तक जीव के साथ लगा रहता है। इसका अन्त होना बड़ा कठिन है। इसका परिणाम दुःखदायी होता है। यह दूसरा अधर्मद्वार कहा गया है। विवेचन - 'प्राणातिपात' नामक प्रथम अधर्म द्वार पूर्ण होने के बाद उपरोक्त सूत्र में 'मृषावाद' नामक दूसरे अधर्मद्वार का प्ररूपण हुआ है। जहाँ प्राणवधरूप प्रथम पाप रहता है, वहाँ उसका सम्बन्धी मृषावाद भी रहता है। मृषावाद की उत्पत्ति क्रोध, मान, माया और लोभरूपी कषाय-चतुष्ट्य से होती है। मृषावाद का पाप दुराशयपूर्वक होता है। इसके प्रभाव से मृषावादी और जिसके लिए झूठ बोला जाये उसे मानसिक क्लेश होता है - असत्य भाषण किसी सत्य को ढकने-छुपाने के लिए होता है। णियडि - मायाचारपूर्वक किसी को हानि पहुँचाना, गूढ मानस वृत्ति, दांभिकपन, बकवृत्तिः। - णीयजणणिसेवियं - मृषावाद का सेवन नींच लोग करते हैं। जो सदाचारी उत्तम मनुष्य होते हैं, वे असत्य का आचरण नहीं करते। - अप्पच्चयकारगं - असत्य भाषण करने वाले की प्रतीति नहीं होती, विश्वास उठ जाता है और लोग उसे विश्वासघाती मानते हैं। मृषावाद के नाम तस्स य णामाणि गोण्णाणि होति तीसं। तं जहा - १. अलियं २. सढं ३. अणज्जं ४. मायामोसो ५. असंतगं ६. कूडकवडमवत्थुगं च ७. णिरत्थयमवत्थयं च ८. विद्देसगरहणिजे ९. अणुजुर्ग १०. कक्कणा य ११. वंचणा य १२. मिच्छापच्छाकडं च १३. साई उ १४. उच्छण्णं १५. उक्कूलं च १६: अट्ट १७. अब्भक्खाणं च १८. किविसं १९. वलयं २०. गहणं च २१. मम्मणं च २२. णूमं णिययी २४. अपच्चओ २५. असंमओ २६. असच्चसंघत्तणं २७. विवक्खो २८. अवहीयं २९. उवहिअसुद्धं ३०. अवलोवोत्ति। अवि य तस्स एयाणि एवमाइयाणि -णामधेजाणि होति तीसं, साबजस्स अलियस्स वइजोगस्स अणेगाई। शब्दार्थ - तस्स - उसके, णामाणि - नाम, गोण्णाणि - गुणनिष्पन्न, होति तीसं - तीस हैं, तं जहा - वे इस प्रकार हैं - १. अलियं - अलीक। असत्य-भाषण रूप। शुभ फल से रहित। 'बो भालते दोषमविद्यमानं, सतां गुणानां ग्रहणे च मूकः॥ स: पापभाक् स्यात् स विनिन्दकश्च, यशोबधः प्राणवधाद्गरीवान्॥१॥ यशस्तिलक चम्पू अर्थात्-जो अविद्यमान दोष कहता है एवं मिथ्या दोषोरोपण करता है, सजनों के गुणवर्णन में मूक (गूंगा) रहता है। वह पापी होता है। वह निन्दक कहा जाता है। किसी की कीर्ति का घात करना प्राणवध से भी बढ़कर है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy