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________________ पापियों को प्राप्त संसार-सागर - १४१ **** ****** ******* *** **************************** संसार की बाह्य परिधि हैं। इससे जन्म-जरा और गम्भीर दुःख रूप क्षुब्ध रहता हुआ प्रचुर जल भरा हुआ है। इस समुद्र में अनिष्ट संयोग और इष्ठ वियोग से उत्पन्न चिन्ता तथा वध-बन्धनादि यातना रूप उठती हुई बड़ी-बड़ी तरंगें हैं। करुण विलाप तथा लोभ रूपी घोर ध्वनियाँ हैं और अपमान रूपी फेन इसमें उत्पन्न होते रहते हैं। संसार-समुद्र में तीव्र निंदा, कठोर वचन, शत्रुओं से पराजय, धमकियाँ, झिड़कियाँ और तजन्य वेदना वाले आठ प्रकार के कठोर कर्म रूपी बड़े-बड़े पत्थर हैं, जिनसे टकरा कर इसमें तरंगें उठती रहती हैं। मृत्यु और भय रूपी इस समुद्र का जलपृष्ठ (पानी की ऊपरी सतह) है। संसार-समुद्र में कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी पाताल कलश है। जन्म-मरण से होते हुए लाखों भव रूपी पानी से यह समुद्र भरपूर है। यह संसार-सागर अनन्त है, अत्यन्त विशाल है, अपरम्पार है और प्राणियों को उद्वेग करने वाला है। महाभयंकर, भयोत्पादक एवं भय परम्परा बढ़ाने वाला है। निःसीम तृष्णा, महत्इच्छा तथा कलुसित भावना रूप वायु-वेग से संसार-समुद्र क्षुभित हो रहा है। आशा और तृष्णारूपी. समुद्र का पाताल (तल) है। काम-रति शब्दादि विषयों की लालसा, राग-द्वेष तथा विविध प्रकार के संकल्प रूपी जल की प्रचुरता से उत्पन्न अन्धकार है। महामोह रूपी आवर्त (चक्कर) में कामभोगरूपी, मण्डलाकार घूमता हुआ जल है, जो गर्भवास रूपी मध्यभाग में प्राणियों को डालता रहता है, जो अनेक प्रकार के दुःखों से पीड़ित हो कर रोने तथा आक्रन्द करने रूप प्रचण्ड वायु के आघात से उत्पन्न तरंगों से प्रताडित एवं क्षुब्ध रहता है। प्रमाद रूपी भयंकर हिंसक जंतुओं द्वारा जीवों पर होते हुए विध्वंश एवं अनर्थों से संसार-समुद्र भरा हुआ है। अज्ञान रूपी मच्छरों तथा उद्दण्ड इन्द्रियाँ रूपी महा मकरों की शीघ्रतापूर्वक की जाने वाली चेष्टाओं से क्षुब्धता बनी रहती है। संतापजलन एवं शोक रूप बड़वानल से, समुद्र सदैव चंचल तथा चपल रहता है। अरक्षित, निराश्रित एवं निराधार जीवों के, पूर्वजन्म के किये, सैकड़ों प्रकार के पाप-कर्मों के संचय से उदय में आया हुआ सैकड़ों प्रकार का दुःख रूप चक्कर काटता हुआ जल समूह है। इड्डि-रस-साय-गारवोहार-गहिय-कम्मपडिबद्ध-सत्तकड्डिजमाण-णिरयतलहुत्तसण्णविसण्णबहुलं अरइ-रइ-भय-विसाय-सोगमिच्छत्त-सेलसंकडं अणाइसंताणकम्मबंधण-किलेसचिक्खिल्लसुदुत्तारं अमर-णर-तिरियणिरयगइ-गमण-कुडिलपरियत्त-विपुलवेलं हिंसा-लिय-अदत्तादाणमेहुणपरिग्गहारंभ करण-करावणाणुमोयण-अट्ठविह-अणिट्ठकम्मपिंडिय-गुरुभारक्कंतदुग्गजलोघ-दूरपणोलिजमाणउम्मुग्ग-णिम्मुग्ग-दूल्लभतलं सारीरमणोमयाणिदुक्खाणि-उप्पियंता सायस्सायपरितावणमयं उब्बुड्डणिब्बुड्डयं करेंता चउरंतमहंत-मणवयग्गं रुई संसारसागरं अट्ठियं अणालंबण-मपइठाण-मष्पमेयं चुलसीइ-जोणि-सयसहस्सगुविलं अणालोकमंधयारं अणंतकालं णिच्चं उत्तत्थसुण्णभयसण्णसंपउत्ता वसंति, उव्विग्गवासवसहिं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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