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________________ चक्रवर्ती की ऋद्धि १६१ दो पशु होते हैं - अश्वरत्न और हस्तिरत्न। नव निधान - (भण्डार) १. नैसर्प निधान - जो नये ग्रामों का निर्माण और पुराने का जिर्णोद्धार एवं व्यवस्थित करता है। सेना के लिए मार्ग, शिविर, पुल आदि का निर्माण करता है। २. पांडुक निधि - सोना-चांदी के सिक्के बनाना, सामग्री जुटाना, तोल-नाप के साधन, वस्तु निष्पादन के सभी साधन उपलब्ध करने वाली। . ३. पिंगल निधि - स्त्री, पुरुष, अश्व और हाथी के आभूषणों की व्यवस्था करने वाली। ४. सर्व-रल निधि - चक्रवर्ती के चौदह रत्न और अन्य रत्नों की संग्राहक। ५. महापद्म निधि - श्वेत एवं रंगीन वस्त्रों की व्यवस्था करने वाली। ६. कालनिधि - भूत और भविष्य के तीन-तीन वर्ष तथा वर्तमानकाल का ज्ञान तथा कृषि, शिल्प, वाणिज्य, घट-पटादि निर्माण की ज्ञान-प्रदायिका। ७. महाकाल निधि-खानों में से स्वर्णादि धातुएं और रत्नादि सम्बन्धी सामग्री प्राप्त कराने वाली। ८. माणवक निधि - योद्धागण और उनके लिए अस्त्र-शस्त्र, युद्ध-नीति, व्यूह-रचना, दण्ड रचना, दण्ड-नीति आदि से युक्त। ९. शंखनिधि - विविध प्रकार के नृत्य, नाटक, छन्द, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-पुरुषार्थ तथा विविध भाषा वादिन्त्रादि से भरपूर। ... - प्रत्येक निधि बारह योजन लम्बी, नौ योजन विस्तार वाली और आठ योजन ऊँची तथा देव से अधिष्टित होती है। मंजूषा के आकार वाली है और गंगा नदी के मुख पर होती है। स्थानांग स्थान ९ और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में इनका विशेष उल्लेख है। ___चक्रवर्ती सम्राट की १६००० देव सेवा करते हैं। इनमें से १४००० तो चौदह रत्नों की और २००० उनके दोनों भुजाओं की ओर रहते हैं। उनकी सेना में ८४००००० हाथी, इतने ही घोड़े और इतने ही रथ होते हैं, ९६००००००० पदाति सैनिक होते हैं। ____ ७२००० बड़े नगर, ३२००० जनपद, ९६००००००० गाँव, ९९००० द्रोणमुख, ४८००० पट्टण, २४००० मण्डप, २०००० आकर, १६००० खेट, १४००० संबाह ५६००० अन्तरोदक। प्रवचनसारोद्धार में कुछ विशेष वर्णन है। इस प्रकार की उत्तम ऋद्धि संपत्ति और उत्कृष्ट कामभोगों के भोक्ता चक्रवर्ती सम्राट भी भोग ही में आसक्त रहते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं और सीधे नरक में उत्पन्न हो जाते हैं। वे पुरुषवेदी से नपुंसक बन जाते हैं और महान् दुःखों के भोक्ता होते हैं। जो पुण्य का भण्डार वे लाये थे, उससे उन्होंने पुण्य का नहीं, पाप का भण्डार भरा। वह पाप अब नरक में भोग रहे हैं। वे कामभोग अब भयंकर दुःखदायक बन रहे हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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