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________________ प्रथम भावना-श्रोत्रेन्द्रिय-संयम 319 **************************************************************** णिभओ - निर्भय, विऊ - विद्वान, सचित्ताचित्तमीसगेहिं दव्वेहिं - सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों से, विरायं गए - विरागता प्राप्त, संचयाओ तिरए - संग्रह से दूर, मुत्ते - मुक्त, लहुए - लघु-हल्का, णिरवकंखे - आकांक्षा रहित, जीवियमरणासविप्पमुक्के - जीवन-मरण की आशा से दूर, णिस्संधिणिव्वणं चरित्तं - सन्धि-चारित्र परिणाम के विच्छेद से रहित, धीरे - धीर, काएण फासयंते - शरीर से पालन करता हुआ, सययं - सदा, अज्झप्पझाणजुत्ते - अध्यात्म ध्यान से युक्त, णिहुरा - दृढ़ता पूर्वक, एग - राग-द्वेष रहित होकर एकाकी, चरेज धम्मं - धर्म का आचरण करे। विवेचन - - गामे गामे एगरायं णयरे णयरे पंचरायं - गांवों में एक रात और नगरों में पांच रात। इस पाठ को व्याख्याकार ने भिक्षु प्रतिमा वाले महात्मा से सम्बन्धित बतलाया है। किन्तु प्रतिमाधारी और जिनकल्पी तो शेषकाल में दो रात्रि से अधिक नहीं ठहरते (दशाश्रुतस्कन्ध)। अतः यह पाठ स्थविरकल्पी के विषय में होना चाहिए और रात्रि का अर्थ - एक वार से लगा कर उसी वार (सप्ताह) तक एक रात्रि मानने की धारणा से पांच रात्रि का मास-कल्प हो जाता है। आगे ज्ञानी कहे वही ठीक है। इमं च परिग्गहवेरमण-परिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभावियं आगमेसिभई सुद्धं णेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाणं विउवसमणं। शब्दार्थ - इमं च - इस, परिग्गहवेरमण-परिरक्खणट्ठयाए - परिग्रह-त्याग व्रत की रक्षा के लिए, पावयणं भगवया सुकहियं - भगवान् ने उत्तम प्रकार से प्रवचन कहा, अत्तहियं - आत्महित करने वाला, पेच्चाभावियं - पर-भव में उत्तम फल देने वाला, आगमेसिभदं - भविष्य में कल्याणकारी, सुद्धं - शुद्ध, णेयाउयं - न्याय युक्त, अकुडिलं - कुटिलता-रहित-सरल, अणुत्तरं - श्रेष्ठ, सव्वदुक्खापावाणं विउवसमणं - समस्त पाप और दुःख को उपशांत करने वाला। / भावार्थ - इस परिग्रह-त्याग व्रत की सुरक्षा के लिए भगवान् ने उत्तम प्रवचन-उपदेश दिया है। यह प्रवचन आत्महितकारी है, परभव में उत्तम फल देने वाला है, भविष्य के लिए कल्याणकारी है, शुद्ध है, न्याययुक्त है, सरल है, उत्तमोत्तम है और सभी प्रकार के पाप और दुःख का शमन करने वाला है। अपरिग्रह व्रत की पांच भावनाएं प्रथम भावना-श्रोत्रेन्द्रिय-संयम . तस्स इमा पंच भावणाओ चरिमस्स वयस्स होंति परिग्गह-वेरमणपरिरक्खणट्ठयाए। पढमं सोइंदिएणं सोच्चा सहाई मणुण्णभद्दगाई। किं ते? वरमुरयमुइंग-पणव-ददुर-कच्छभि-वीणा-विपंची-वल्लयि-वद्धीसग-सुघोस-णंदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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