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________________ नारकों की मरने के बाद की गति **************************************************************** हैं, तिक्ख-णक्ख-विक्किण्ण जिब्भंछिय णयण - तीखे नखों से उनकी जीभ और आँखें नोच लेते हैं, णिहओ लुग्गविगयवयणा - निर्दयता के साथ उनके मुख को विकृत कर देते हैं, उक्कोसंता - ऐसे घोर दुःख से दुःखी होकर वे नारक रुदन करते हैं, उप्पयंता - ऊपर उछलते हैं, णिप्पयंता - नीचे गिरते हैं, भमंता - चक्कर काटते हैं। . भावार्थ - नरक में भेड़िये, कुत्ते, शृगाल, कौए, बिल्ले, अष्टापद, चीते, व्याघ्र और शार्दुलसिंह आदि भयंकर प्राणी दर्पयुक्त बने हुए वे भूख से पीड़ित होकर सदैव खाने के लिए तत्पर रहते हैं। वे अपनी-अपनी.बोली से तीव्रतम गर्जनादि करते हुए भयंकर बनकर नारक जीवों पर आक्रमण करते हैं। फिर वे अपनी कठोर और दृढ़तम दाढ़ाओं से उन्हें पकड़ कर शरीर को तोड़ते और तीक्ष्ण नाखुनों से चीरते हैं। वे हिंस्र-पशु नारकों के शरीर को रगदोल कर समस्त सन्धियाँ (जोड़) ढीले कर देते हैं और समस्त अंगों को विकृत कर डालते हैं तथा इधर-उधर फैंक देते हैं। उन पर चारों ओर से कंक, कुरर, गिद्ध और कौओं का समूह टूट पड़ता है और अपनी वज्र-तुल्य तीक्ष्ण चोंचों को उन छटपटाते हुए नारक जीवों के शरीर में घोंप-घोंपकर भेदन करते हैं। अपने तीक्ष्ण पंखों के तलवार के समान तेज झपाटों से छेदन करते हैं। अपने तीखे नाखुनों से उनकी जीभ नोचते और आँखें निकाल लेते हैं। वे निर्दय पक्षी, उन नास्कों के मुख को विकृत कर देते हैं। इस प्रकार के घोर दुःखों से पीड़ित होकर वे नारक जीव, रुदन करते हैं, उछलते-गिरते और चक्कर लगाते हैं। ... . . नारकों की मरने के बाद की गति . पुवकम्मोदयोवगया, पच्छाणुसएणं डझमाणा णिदंता पुरेकडाई कम्माइं पावगाई तहिं तहिं तारिसाणि ओसण्णे चिक्कणाई दुक्खाई अणुभवित्ता तओ य आउक्खएणं उव्यट्टिया समाणा बहवे गच्छंति तिरिय-वसहिं दुक्खुत्तरं सुदारुणं जम्मणमरणजरावाहि-परियट्टणारहट्टं जल-थल-खहयर-परोप्पर विहिंसण-पवंचं इमंच जगपागडं वरागा दुक्खं पावेंति दीहकालं। शब्दार्थ - पुव्वकम्मोदयोवगया - पूर्वभव के कर्मों के उदय से, पच्छाणुसएणं - पश्चाताप से, डझमाणा - जलते हुए, तहिं तहिं - वहाँ-वहाँ-उन-उन स्थानों में, तारिसाई - उस प्रकार के, पुरेकडाई - पूर्व में किये हुए, पावाई कम्माइं - पाप कर्मों की, णिदित्ता - निन्दा करते हैं, ओसण्ण चिक्कणाई - अतिशय चिकने-बड़ी कठिनता से छोड़े जा सके-ऐसे दुर्भेद्य, दुक्खाई - दुःखों को, अणुभवित्ता - भोग कर, तओ य - उसके बाद, आउक्खएणं - नरकायु का क्षय होने पर, उवट्टिया समाणा- नरक से निकले हुए, बहवे - बहुत-से, गच्छइ - जाते हैं, तिरियवसहि - तिर्यंच योनि में दुक्खुत्तरं - महान् दुःखों वाली और अत्यन्त दीर्घ काल तक की स्थिति वाली, सुदारुण - अत्यन्त दारुण दुःख देने वाली, जम्मणमरण - जन्म-मरण, जरावाहि - जरा और व्याधि के, परियट्टणारहट्टं - रहट के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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