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________________ ४६ - प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ समान चक्कर, जल-थल-खहयर - जलचर, थलचर और खेचर के, परोप्पर विहिंसण - परस्पर हिंसक कृत्य का, पवंचं - प्रपंच-विस्तार चलता है, जगपागडं - जगत् में प्रत्यक्ष, वरागां - बिचारे, दुक्खं पाति-दुःख पाते हैं, दीहकालं - दीर्घकाल तक। भावार्थ - पूर्वभव में बांधे हुए कर्मों के उदय से घोरतम दुःख भोगते हुए वे नारक पछताते हुए सोचते हैं कि हमने पूर्वभव में उन स्थानों पर ऐसे पापकर्मों का संचय क्यों कर लिया, जिससे हमें ऐसे असह्य दारुण दुःख भोगने पड़े। वे उन पाप-कृत्यों की निन्दा करते हैं और पश्चात्ताप से जलते हैं। चे नरक-भव में अपने दृढ़तम एवं घोर कर्मों का दुखानुभव करते हुए वहाँ का आयु पूर्ण करते हैं। नरकायु क्षय होने पर बहुत-से जीव नरक से निकल कर तिर्यंच योनि में जाते हैं। वे तिर्यंच योनि में भी अत्यन्त दुःख वाली और अत्यन्त दीर्घकाल (अनन्तकाल) वाली स्थावरकाय में जाकर छेदन-भेदनादि एवं क्षुद्र-भवादि में दारुण दुःख भोगते रहते हैं और जन्म-मरण व्याधि, रोग तथा भवभ्रमण सम्बन्धी दु:ख भोगते ही रहते हैं। जलचर, स्थलचर और नभचर तिर्यंचों में आपस में ही लड़-झगड़, आघातप्रत्याघात से उत्पन्न शारीरिक और मानसिक दुःख भोगते रहते हैं। कुत्ता-बिल्ली, सर्प, नेवले, सर्प-मयूर आदि के एक-दूसरे को नष्ट कर देने जैसी लड़ाइयाँ संसार में प्रत्यक्ष दिखाई दे रही हैं। इस प्रकार ये जीव बिचारे दीर्घकाल तक दुःख भोगते रहते हैं। विवेचन - नरक में दुःख भोगते हुए नारकों को अपने पूर्व-भव के दुष्कृत्य याद आते हैं। वे सोचते हैं कि "मैंने स्वल्प सुख के लिए अथवा कषाय पर अंकुश नहीं रखकर, आवेशित होकर कितने पापकर्मों का उपार्जन कर लिया? हाँ, उस समय मैं क्यों इतना मूढ़ मिथ्यात्वी और महापापी बन गया? उस समय मेरी बुद्धि क्यों मारी गई? हाँ, धिक्कार है मेरी उस अधमाधम बुद्धि और पापी-कृत्य को-" इस प्रकार अपने पापकर्मों की निन्दा करते हैं। सम्यग्दृष्टि नारक तो अपने ज्ञान से ही जान लेते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि नारक, परमाधामी देव अथवा सम्यग्दृष्टि नारक के कहने से जानते हैं। वैसे कई मिथ्यादृष्टि नारक भी करणी का फल मानते हैं। नारक भव की परम्पर वैर-विरोध एवं मारकाट की परिणति से उस आत्मा की वह अशुभ लेश्या, नरक छोड़ने पर भी न्यूनाधिक कायम रहती है और मनुष्य-तिर्यंच में आकर वह कषाय की आग पुनः सतेज हो जाती है। ऐसी आत्माएं बहुत कम होती हैं, जिनका विवेक जाग्रत होकर कषाय की आग को दबाती रहती है। वे आत्माएं नरक से निकल कर प्रशस्त हो जाती हैं और उत्थान का मार्ग पकड़ लेती हैं। शेष असंख्य आत्माएं तो अपने को निर्दोष और दूसरों को दोषी मानकर लड़ती-झगड़ती एवं दुःखी होती है। नरक में से निकलने वाली वे आत्माएं बहुत कम होती हैं, जो मनुष्य-भव पाती हैं। तिर्यंच-भव पाने वाली बहुत अधिक-असंख्य गुण होती हैं। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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