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________________ 224 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ० 1 ************************************************************* महाव्रत, होति - है, पाणाइवाय-वेरमण-परिरक्खण-दयट्ठयाए - प्राणातिपात विरमण रूप पहले महाव्रत की रक्षा रूप दया के लिए, ठाणगमणगुणजोगजुंजणजुगंतरणिवाइयाएं - स्व पर गुणवृद्धि के लिए साधु को ठहरने में और चलने में भूमि पर एक युग मात्र, दिट्टिए - दृष्टि रखना, ईरियव्वं - ईर्यासमिति पूर्वक, कीडपयंगतसथावरदयावरण - कीट, पतंग, त्रस और स्थावर जीवों की रक्षा करना, णिच्च - सदैव, पुष्फफलतयपवालकंदमूलदगमट्टियबीयहरियपरिवज्जिएण - फूल, फल, त्वचा, प्रवाल, क्रंद, मूल, पानी, मिट्टी, बीज और हरीकाय को वर्जित करना, सम्मं - सम्यक् प्रवृत्ति, एवं - इस प्रकार, सव्वपाणा - सभी प्राणियों की, ण हीलियव्वा - अवज्ञा न करे, ण णिंदियव्वा - निंदा नहीं करे, ण गरहियव्वा - गर्हा न करे, ण हिंसियव्या - हिंसा न करे, ण छिंदियव्या - छेदन नहीं करे, ण भिंदियव्वाभेदन न करे, ण वहेयव्या- वध न करे, किंचि - किंचित् मात्र भी, भयं- भय, य - और, दुक्खं - दुःख, ण लब्भा पावेड - न दे, एवं - इस प्रकार, ईरियासमिइजोगेण - ईर्यासमिति द्वारा, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, भाविओ भवइ:- भावित होती है, असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए - उसका चारित्र और परिणाम निर्मल, विशुद्ध और अखण्डित होता है, अहिंसए - अहिंसक, संजए - संयमधारी, सुसाहू - मोक्ष का साधक उत्तम साधु। . . भावार्थ - इस अहिंसा महाव्रत की पाँच भावनाएं हैं। प्राणातिपातविरमण' नामक प्रथम महाव्रत की रक्षा'रूप दया के लिए और स्व-पर गुण-वृद्धि के लिए साधु चलने और ठहरने में युग-प्रमाण भूमि पर दृष्टि रखता हुआ ईर्यासमितिपूर्वक चले, जिससे उसके पाँव के नीचे दब कर कीट, पतंगादि त्रस और स्थावर जीवों की घात न हो जाए। चलते या बैठते समय साधु सदैव पुष्प, फल, त्वचा, प्रवाल, कन्द, मूल, पानी, मिट्टी, बीज और हरीकाय को वर्जित करता-टालवा-बचाता हुआ सम्यक् प्रवृत्ति करे। इस प्रकार ईर्यासमितिपूर्वक प्रवृत्ति करते हुए साधु सभी प्राणियों, या किसी भी प्राणी की, अवज्ञा या हीलना नहीं करे, न निन्दा करे, हिंसा भी नहीं करे और न छेदन, भेदन और वध करे। किसी भी प्राणी को किञ्चित् मात्र भी भय और दुःख नहीं दे। इस प्रकार ईर्यासमिति से अन्तरात्मा भावित-पवित्र होती है। उसका चारित्र और परिणति निर्मल, विशुद्ध एवं अखण्डित होती है। वह अहिंसक होता है। ऐसा अहिंसक संयत, उत्तम साधु होता है। माना विवेचन - अहिंसा महाव्रत की पाँच भावनाओं में से प्रथम भावना-ईर्यासमिति रूप है। चलने, फिरने, बैठने आदि आवश्यक कार्यों में बहुत सावधानीपूर्वक जीवों की यतनाः करने का इस प्रथम भावना में विधान किया है। इस भावना में शारीरिक प्रवृत्ति को नियन्त्रित करने का उपदेश दिया है। . - द्वितीय भावना - मन-समिति बिइयं च मणेण पावएणं पावगं अहम्मिय दारुणं णिस्संसं वह-बंधपरिकिलेसबहुलं भयमरणपरिकिलेससंकिलिटुं ण कयावि मणेण पावएणं पावगं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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