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________________ 226 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०१ *************************************************************** शब्दार्थ - तइयं - तीसरी, वइए - वचन से, पावियाए - पापकारी, पावगं - पापयुक्त वचन, ण भासियव्वं - नहीं बोलना चाहिए, वइसमिइजोगेण - वचन-समिति के व्यापार से, भाविओ भवइ - भावित होना, अंतरप्या - अन्तरात्मा, असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए - उसका चारित्र और परिणाम निर्मल, विशुद्ध और अखण्डित होता है, अहिंसए-अहिंसक, संजए-संयमधारी, सुसाहू-सुसाधु। भावार्थ - अहिंसा महाव्रत की तीसरी भावना वचन-समिति है। कुवचनों से किंचित् मात्र भी पापकारी-आरंभकारी वचन नहीं बोलना चाहिए। वचन-समितिपूर्वक वाणी के व्यापार से अन्तरात्मा निर्मल होती है। उसका चारित्र एवं भाव निर्मल विशुद्ध एवं परिपूर्ण होता है। वचन-समिति (भाषा-समिति) का पालक अहिंसक, संयमी तथा मोक्ष का उत्तम साधक होता है। उसकी साधुता प्रशंसनीय होती है। विवेचन - वचनों से भी जीवों में क्लेश, परिताप एवं दुःख उत्पन्न किया जाता है। वचनों के बाण से बिंधे हुए जीव, आत्मघात कर लेते हैं। वचनों के दुष्ट व्यापार से जाति, समाज, देश और राष्ट्र में लड़ाई-झगड़े, उपद्रव एवं युद्ध तक हो सकते हैं। सत्य होते हुए भी कटु, आघातकारक, छेद-भेद एवं वधकारक वचनों का प्रयोग, हिंसाकारी तथा मृषावाद है। मिथ्या उपदेश एवं सावध प्रचार भी वचन-समिति के पालक के लिए त्याज्य हैं। अतएव अहिंसा के पालक को वचनगुप्ति का पालक बन, कर आवश्यकतानुसार निर्दोष वाणी का उच्चारण करना चाहिए। चतुर्थ भावना - आहारैषणा समिति चउत्थं आहारएसणाए सुद्धं उंछं गवेसियव्वं अण्णाए अगढिए अदुढे अदीणे अकलुणे अविसाई अपरितंतजोगी जयणघडणकरणचरियविणयगुणजोगसंपओगजुत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए जुत्ते समुदाणेऊण भिक्खचरिय उंछं घेत्तूण आगओ गुरुजणस्स पासं गमणागमणाइयारे पडिक्कमणपडिक्कंते आलोयणदायणं य दाऊण गुरुजणस्स गुरुसंदिट्ठस्स वा जहोवएसं णिरइयारं च अप्पमत्तो, पुणरवि अणेसणाए पयओ पडिक्कमित्ता पसंते आसीणसुहणिसण्णे मुहुत्तमित्तं य झाणसुहजोगणाणसज्झायगोवियमणे धम्ममणे अविमणे सुहमणे अविग्गहमणे समाहियमणे सद्धासंवेगणिज्जरमणे पवयणवच्छलभावियमणे उद्विऊण य पहठ्ठतढे जहारायणियं णिमंतइत्ता य साहवे भावओ य विइण्णे य गुरुजणेणं उपविढे। शब्दार्थ - चउत्थं - चतुर्थ भावना, आहारएसणाए - आहार की गवेषणा के लिए, सुद्धं - शुद्ध, उंछं - थोड़े-थोड़े, गवेसियव्वं - गवेषणा करे। अण्णाए - अज्ञात रहता हुआ, अगढिए - गृद्ध नहीं होता हुआ, अदुढे - द्वेषभाव नहीं लाता हुआ, अदीणे - दीन-भाव रहित, अकलुणे - करुण भाव नहीं बताता हुआ, अविसाई - विषाद नहीं करे, अपरितंतजोगी - मन वचन और काया के योगों को अखिन्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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