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________________ मृषावाद का भयानक फल १०१ **************************************************************** भावार्थ - उस मृषावाद के दुःखदायक फलभोग को नहीं जानते हुए वे मिथ्यावादी लोग, भयंकरतम वेदनायुक्त नरक और तिर्यंच गति के अशुभ कर्म बढ़ाते हैं और उन पापकर्मों से बंधे हुए वे वहाँ उत्पन्न होकर दीर्घकाल पर्यन्त दुःख परम्परा से परिपूर्ण जीवन बिताते हैं। वहाँ उन्हें विश्रांति प्राप्त नहीं होती। वे निरन्तर दुःख ही दुःख में पीड़ित होते रहते हैं और पुनर्भव रूपी अन्धकार में भटकते रहते हैं। वे मिथ्यावादी लोग इस लोक में भी दुरावस्था में दिखाई देते हैं उनकी दुःख परम्परा का अन्त नहीं आता। वे सदैव पराधीन ही रहते हैं। वे दरिद्री लोग धन एवं भोग साधनों से वंचित रहते हैं। उनके जीवन में सुख अथवा सुखदायक मित्रादि का योग ही नहीं मिलता। उनके शरीर का स्पर्श-चमड़ी, बिवाई, दाद, खाज, फोड़े और घाव आदि से विकृत तथा फटी हुई रहती है। उनके शरीर का वर्ण भी खराब होता है। स्पर्श भी कर्कश एवं कठोर होता है। शरीर मलिन नि:सार दुर्गन्ध युक्त एवं अशोभनीय होता है। उनकी बोली अस्पष्ट, अटकती हुई और हार्दिकभाव स्पष्ट करने में असमर्थ होती है। उनकी वाणी निष्फल होती है। वे सत्कार-सम्मान से रहित तथा अपमानित रहते हैं। उनकी आत्म-चेतना (ज्ञान-चेतना) कुंठित रहती है। वे दुर्भागी (हतभागी) अनिच्छनीय तथा घृणित होते हैं। उनका स्वर कौए के समान अप्रिय होता है। उनकी ध्वनि हीन, धीमी और टूटी-फूटी होती है। वे मूर्ख, बहरे, अन्धे और अशोभनीय तथा विकृत इन्द्रिय वाले होते हैं। वे स्वयं नीच-नीचकुलोत्पन्न होते हैं और उनकी संगति भी नीच लोगों से रहती है। वे लोगों द्वारा घृणित एवं निन्दित होते हैं। वे पापोदय के कारण अपने से भी अधम माने जाने वाले मनुष्य के दास रूप में रहकर जीवन व्यतीत करते हैं। उनकी बुद्धि भी पाप पूर्ण होती है। उत्तम विचार उनके मन में उत्पन्न ही नहीं होते वे महाभारतादि लौकिक अथवा आचारांगादि लोकोत्तर शास्त्रों एवं सिद्धान्तों से वंचित रहते हैं। उन दुर्बुद्धियों में धर्म सम्बन्धी विचार ही उत्पन्न नहीं होते। वे सदैव अनुपशान्त (अशांत) रहते हुए मिथ्या विचारों की आग में जलते ही रहते हैं। उनका प्रत्येक स्थान पर अपमान होता रहता है। पीठे-पीछे भी उनकी निंदा होती रहती है। उन पर दोषारोपण होते रहते हैं। चुगलखोर लोग उनकी चुगली करके स्नेहियों से सम्बन्ध तुड़वा देते हैं। उनके गुरुजन बन्धु-बान्धव, स्वजन-परिजन और मित्रजन उन्हें कठोर वचन सुनाते रहते हैं। वे मृषावाद रूपी पाप के उदय वाले जीव, उपेक्षणीय एवं घृणित होते हैं। लोग उनके साथ इस प्रकार के वचनों का व्यवहार करते हैं कि जिससे उनके हृदय एवं मन को आघात लगे, संताप उत्पन्न हो, वे खिन्न बने रहें और उन पर कलंक लगे। उनके दुःखों की समाप्ति शीघ्र नहीं होती। वे जीवनपर्यन्त दुःखी रहते हैं। उनका दुःखों से छुटकारा होना कठिन हो जाता है। वे पापी जीव, दूसरों के द्वारा अत्यन्त कठोर वचनों से डराये-धमकाये और फटकारे जाते हैं। दुःखानुभव से उनका मुख दीन और मन विकल रहता है। उन्हें खाने में भोजन भी अच्छा नहीं मिलता। बुरे अपथ्यकारी एवं पोषणहीन भोजन से वे कुछ क्षुधा बुझाते रहते हैं। उनके पहनने के वस्त्र भी हीन एवं अपर्याप्त होते हैं। उनके रहने का स्थान भी बुरा . होता है। वे अनेक प्रकार से क्लेशित रहते और सैकड़ों प्रकार के बड़े-बड़े दुःख सहते हुए संतप्त रहते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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