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________________ १०२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० २ **************************************************************** हैं। उनके जीवन में न तो कभी शारीरिक सुख होता है और न मानसिक। वे अपने मृषावाद के पाप का दु:खदायक फल भोगते ही रहते हैं। विवेचन - इस सूत्र में मृषावाद रूपी पाप का दुःखदायक फल बतलाया है। पाप का फल दुःखदायक ही होता है। वह दुःख शारीरिक, वाचिक और मानसिक होता है। अनेक प्रकार की बहुमुखी प्रतिकूलता भी पाप का परिणाम है और सुख सामग्री रूप धन-धान्यादि का अभाव, दरिद्रता एवं विपन्नता भी। धन-धान्यादि की सम्पन्नता पुण्य का परिणाम है, तो विपन्नता पाप का फल होता है। यह बात भी इस फल-विधान से सिद्ध होती है। जो विचारक कहते हैं कि-धन-धान्यादि की विपन्नता पाप का फल नहीं, उन्हें इस सूत्र में आये हुए-अत्थ-भोग-परिवज्जिया........दुभगा........भिच्चा...... पेस्सा कुभोयणा कुवसया कुवसहिसु आदि शब्दों पर विचार करके अपना भ्रम दूर करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि इच्छित अर्थ-भोगादि पौद्गलिक सामग्री का अभाव भी पाप का फल है। इसके विपरीत इच्छित धनादि की प्राप्ति पुण्य का फल है। इस प्रकार कर्म-सिद्धान्त पर विश्वास रख कर पाप का त्याग करना चाहिए। _भगवान् से कहा हुआ एसो सो अलियवयणस्स फलविवाओ इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कओ असाओ वास-सहस्सेहिं मुच्चइ, ण अवेयइत्ता अत्थि हु मोक्खोत्ति, एवमाहंसु णायकुलणंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरणामधेजो कहेसि य अलियवयणस्स फलविवागं। ... ___ शब्दार्थ - एसो - यह, अलियवयणस्स - मिथ्या वचन का, फलविवाओ - फल-विपाक है, इहलोइओ - इस लोक का, परलोइओ - परलोक सम्बन्धी, अप्पसुहो - सुख नहीं, बहुदुक्खो - बहुत दुःखदायक, महब्भओ - महाभयंकर, बहुरयप्पगाढो - बहुत-सी कर्म रूपी रज से गाढ़ बना हुआ, दारुणो - दारुण, कक्कसो - कर्कश, असाओ - असातारूप, वाससहस्सेहिं मुच्चइ - हजारों वर्षों में छुटकारा हो ऐसा, ण - नहीं, अवेयइत्ता - बिना भुगते, अत्थि हु - होता, मोक्खोत्ति - मुक्ति, एवमाहंसु - इस प्रकार, णायकुलणंदणो - ज्ञात-कुल-नन्दन, महप्पा - महात्मा, जिणो - जिन, वीरवरणामधेजो - महावीर नाम से प्रख्यात, कहेसि - कहा, अलियवयणस्स - मिथ्या वचन का, फलविवागं - फल विपाक। __ भावार्थ - मिथ्या-भाषण का यह इहलौकिक और पारलौकिक फल-विपाक है। इसमें सुख का तो लेश भी नहीं है और दुःख बहुत ही भरा रहता है। इसका फल महाभयंकर और अत्यन्त कर्मरज से . युक्त होता है। पाप का फल अत्यन्त दारुण कठोर और असाता रूप होता है। हजारों वर्षों तक फल भोगने से इससे छुटकारा होता है। बिना फल भोगे पाप के परिणाम से मुक्ति नहीं हो सकती। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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