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________________ उपसंहार १०३ **************************************************************** ज्ञातृकुल नन्दन, जिनेश्वर, महान् आत्मा भगवान् महावीर ने, मिथ्या-भाषण का यह कटुकतम फल-विपाक कहा है। विवेचन - मिथ्या-भाषण का महान् अनिष्टकारी फल हजारों-लाखों वर्षों तक अत्यन्त दुःखपूर्वक भोगना पड़ता है। पाप का फल भुगते बिना मुक्ति नहीं हो सकती। मिथ्या-भाषण का अत्यन्त दुःखदायक फल, ज्ञातृ-कुल-नन्दन (ज्ञातृ-कुलोत्पन्न आनंदकारी) महान् आत्मा (परमात्मा) जिनेश्वर भगवान् महावीर ने प्राणियों के हित के लिए बतलाया है। इस पाप का त्याग करने से जीव सुखी होता है। उपसंहार एयं तं बिईयं पि अलियवयणं लहुसग-लहुचवल-भणियं भयंकरं दुहकर अयसकरं वेरकरगं अरइरइ-रागदोस-मणसंकिलेस-वियरणं अलिय-णियडि-साइजोगबहुलं णीयजणणिसेवियं णिस्संसं अप्पच्चयकारगं परम-साहुगरहणिजं परपीलाकारगं परमकण्हलेस्ससहियं दुग्गइ-विणिवाय-वड्डणं पुणब्भवकरं चिरपरिचियमणुगयं दुरुत्तं। ॥बिईयं अहम्मदारं समत्तं॥ . शब्दार्थ - एयं - यह, बिईयं - दूसरा, अलियवयणं - मिथ्या-भाषण का, लहुसगलहुचवलभणियं - छोटे और अति चपल मनुष्यों द्वारा बोला जाता, भयंकरं - भयंकर, दुहकर- दुः खकारी, अयसकरं - अयश-निन्दाकारी, वेरकरगं - वैर उत्पन्न करने वाला, अरइरइ - अरतिरति, रागदोसमणसंकिलेसवियरणं - राग-द्वेष और मानसिक संक्लेश वर्द्धक, अलियणियडि साइजोग बहुलंमिथ्यावाद गूढ माया के अत्यधिक प्रयोग वाला है, णीयजणणिसेवियं - नीच लोगों द्वारा सेवित-आचरित है, णिस्संसं - नृशंस-क्रूर है, अप्पच्चयकारगं - अप्रतीतिकारक है, परमसाहुगरहणिजं - उत्तम साधुओं द्वारा निन्दित है, परपीलाकारगं - दूसरे जीवों को पीड़ा उत्पन्न करने वाला है, परमकण्हलेस्ससहियं - परम कृष्णलेश्या से युक्त है, दुग्गइ विणिवायवड्डणं - दुर्गति में गमन शक्ति का बढ़ाने वाला है, पुणब्भवकरं - पुनर्भव कराने वाला है, चिरपरिचियमणुगयं - चिर-लम्बे काल से परिचित-जानापहचाना और साथ आने वाला है, दुरुत्तं - कठिनाई से अन्त आने योग्य है, अहम्मदारं - अधर्मद्वार, समत्तं - समाप्त हुआ। भावार्थ - यह मिथ्या-भाषण रूप दूसरा द्वार है। तुच्छ और चंचल मनुष्यों द्वारा झूठ बोला जाता है। मिथ्या-भाषण भयंकर एवं दुःखदायक है, अयशकारी है, वैर-विरोध बढ़ाने वाला है। अरति-रतिरागद्वेष एवं मानसिक क्लेश बढ़ाने वाला है और गूढ़तम माया का अधिक प्रयोग कराने वाला है। यह मृषावाद नीच लोगों द्वारा आचरित है, क्रूरतायुक्त है और अप्रतीति (अविश्वास) का जनक है। उत्तम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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