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________________ ग्रामादि लूटने वाले १२१ ********************************************************** जलयान से, अइवइत्ता - आरूढ़ होकर, समुहमाझे हणंति - समुद्र के मध्य में घात करते हैं, गंतूण - जाकर, जणस्सपोए - पोत में रहे हुए मनुष्यों-व्यापारियों को, परदव्वहरा णरा - पराये धन को हरण करने वाले लोग। भावार्थ - जब समुद्र में महावायु-आँधी आदि का उपद्रव होता है, तब ऊँची-ऊँची तरंगमालाएं बड़े वेग से दौड़ती हुई मनुष्यों के दृष्टि-पथ को रोक देती हैं। उसमें ऐसी गम्भीर एवं भयंकर ध्वनि उत्पन्न होती है कि जैसे मेघगर्जना हो रही हो या कहीं बिजली कड़क कर गिरी हो अथवा कोई बड़ी भारी वस्तु ऊपर से गिरी हो। वह दीर्घ ध्वनि धुग-धुग करती हुई व्यापक क्षेत्र में पैल जाती है। ऐसे समय यानमार्ग के अवरोधक ऐसे यक्ष, राक्षस, कुष्मांड, पिशाच आदि रुष्ट हो कर घोर शब्द करते हुए हजारों प्रकार से उपद्रव करने लगते हैं। इसके भय का निवारण करने के लिए कहीं बलिकर्म किया जाता है, तो कहीं हवन किया जाता है, कोई धूप आदि से पूजा करता है, तो कोई किसी प्राणी की हत्या कर के उसके रक्त को देव के अर्पण करता है। यों अनेक प्रकार से देव को प्रसन्न करने की क्रियाएं की जाती हैं। इन सब कारणों से समुद्र को युगान्तकारी-कल्पान्तकारी-विनाशक की उपमा दी गई है। समुद्र का पार पाना अत्यन्त कठिन होता है। समुद्र, गंगा आदि महानदियों और अन्य छोटीबड़ी नदियों का पति है। वह देखने में भी महाभयानक है। इसमें प्रवेश करना और गमन करना भी भयानक है। बड़ी कठिनाई से तथा दुःखपूर्वक इसे पार किया जाता है। समुद्र खारे पानी से भरा हुआ है। जो चोर-डाकू दूसरों के धन को हरण करना चाहते हैं, वे जलयानों पर सवार होते हैं, उनके पोतों पर वस्त्र के काले और धोले पाल चढ़े रहते हैं। उनके यान बड़े वेगपूर्वक चलते हैं । वे समुद्र में जा कर जहाजों के व्यापारियों को मार कर उनका धन-माल लूट लेते हैं। विवेचन-- उपरोक्त सूत्र में समुद्र जैसे उपद्रव पूर्ण भयानक स्थान पर की जाती हुई लूट का वर्णन किया गया है। समुद्री लुटेरे धन के लिए कितना दुःसाहस करते हैं, कितना लोमहर्षक वर्णन है यह। ग्रामादि लूटने वाले ____णिरणुकंपा णिरवयक्खा गामागर-णगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोण-मुहपट्टणासम-णिगम-जणवए य धणसमिद्धे हणंति थिरहिय य छिण्णलज्जा-बंदिग्गहगोग्गहेय गिण्हंति दारुणमई णिक्किवा णियं हणंति छिंदंति गेहसंधिं णिक्खित्ताणि य हरंति धणधण्णदव्वजायाणि जणवयकुलाणं णिग्घिणमई परस्स दव्वाहिं जे अविरया। . शब्दार्थ - णिरणुकम्पा - अनुकम्पा से रहित, णिरवयक्खा - परलोक की अपेक्षा से रहित, गामागर-णगर-खेड-कब्बड - ग्राम, आकर, नगर, खेड, कर्बट, मडंब-दोणमुह - मडंब, द्रोणमुख, पट्टणासम - पत्तन, आश्रम, णिगम-जणवए - निगम जनपद, धणसमिद्धे - धन से समृद्ध, हणंति - मारते हैं, थिरहिय य - स्थिर-कठोर हृदय वाले, छिण्णलज्जा - जिनकी लज्जा नष्ट हो चुकी, बंदिग्गह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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