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________________ १२२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ०३ **************************************************************** बन्दीगृह, गोग्गहे य गिण्हंति - गाय आदि को ग्रहण कर चोरी करते हैं, दारुणमई - दारुण मति वाले, णिक्किवा - कृपा भाव से रहित, णियं - निज - स्वजनों को भी, हणंति - मार डालते हैं, छिंदंति - काट डालते हैं, गेहसंधि - घर की सन्धि, णिक्खित्ताणि - भूमि में सुरक्षित रखे हुए, हरंति - हरण कर लेते हैं, धणधण्णदव्यजायाणि - धन-धान्य आदि द्रव्य जाति को, जणवयकुलाणं - देश के कुलोंसम्पन्न गृहों को, णिग्घिणमई - निर्दय बुद्धि वाले-क्रूर, परस्सदव्याहिं - दूसरों के द्रव्य को, जे - जो, अविरया - अविरत। भावार्थ - जिनके मन में परभव का विचार नहीं, जो अनुकम्पा से रहित हैं-ऐसे पराये धन में . लुब्ध चोर ग्राम, आकर, नगर, खेड़, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, निगम एवं जनपद में जो धनवान् एवं समृद्धजन हैं, उन्हें मार डालते हैं और उनका धन ले लेते हैं। इन लुटेरों का हृदय स्थिर (कठोर) होता है। ये लज्जा से.रहित होते हैं। ये डाकू लोगों को पकड़ कर बन्दी बना लेते हैं। गाय, भैंस आदि पशुओं को चुरा लेते हैं, घर की दीवारों में सेंध लाकर चोरी करते हैं, भूमि आदि से सुरक्षित रखा हुआ धन चुरा लेते हैं और देश में रहने वाले धनसम्पन्न कुलों को मार कर उनका धन-धान्यादि लूट लेते हैं। पराये धन का हरण करने वाले दुष्ट मति वाले चोर, असंयत-अविरत है-उनकी तृष्णा असीम होती है। विवेचन - ग्रामादि का स्वरूप इस प्रकार हैग्राम - छोटा गाँव, जहाँ किसानों की बस्ती अधिक होती है। आकर-स्वर्ण, रजत आदि की खान जहाँ हो। . नगर- कर (चुंगी) से रहित, व्यावसायिक स्थान। खेड - धूलि के प्राकार (कोट) से घिरा हुआ स्थान। कर्बट - थोड़े मनुष्यों की बस्ती वाला गांव। मडम्ब - जिसके चारों ओर ढाई कोस तक कोई गांव नहीं हो-ऐसी बस्ती। द्रोणमुख - जिसमें जल और स्थल मार्ग से जाया जाता हो-ऐसा स्थान।. पत्तन - समस्त वस्तुओं की प्राप्ति का स्थान। आश्रम - तापसों का निवास स्थान। निगम- व्यापारियों का निवास स्थान। जनपद - देश। तहेव केई अदिण्णादाणं गवेसमाणा कालाकालेसु संचरंता चियकापजलियसरस-दर दड्ड-कड्डियकलेवरे रुहिरलित्तवयण-अखय-खाइयपीय-डाइणिभमंतभयंकर-जंबुयक्खिक्खियंते घूयकयघोरसद्दे वेयालुट्ठिय-णिसुद्ध-कहकहिय पहसियबीहणग-णिरभिरामे अइदुब्भिगंध-बीभच्छदरिसणिजे सुसाण-वण-सुण्णघर-लेण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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