________________
ग्रामादि लूटने वाले ।
१२३ **************************************************************** अंतरावण-गिरिकंदर-विस-मसावय-समाकुलासु वसहीसु किलिस्संता सीयातवसोसियसरीरा दड्ढच्छवी णिरयतिरिय-भवसंकड दुक्ख-संभारवेयणिज्जाणि पावकम्माणि संचिणंता, दुल्लह-भक्खण्ण-पाणभोयणा पिवासिया झंझिया किलंता मंस-कुणिमकंदमूल जं किचिकयाहारा उव्विग्गा उप्पुया असरणा अडवीवासं उर्वति वालसय-संकणिज्जं।
शब्दार्थ - तहेव - इसी प्रकार, केई - कई, अदिण्णादाणं - अदत्तादान-चोरी की, गवेसमाणाखोज करने की ताक में, कालाकालेसु - काल एवं अकाल में, संचरंता - घूमते रहते हैं, चियकापजलिय - जलती हुई चिताओं में, सरस - रुधिरादि से युक्त-जिसमें से रक्त निकल रहा है, दरदड - आधे जले हुए, कड्डियकलेवरे - कुत्ते आदि द्वारा चिताओं से निकाले हुए मृत शरीर, रुहिरलित्तवयण - जिनके मुँह रक्त से लिप्त हैं, अखयखाइयपिय - जिन्होंने शव को पूर्णरूप से खाया और रक्त पिया है ऐसी, डाइणभमंत भयंकरं - भयंकर डाकिनी भ्रमण कर रही है अथवा डाकिनी के घूमने-फिरने से जो स्थान भयंकर हो रहा है, जंबुयक्खिक्खियंते - जहाँ शृगाल 'खी खी' शब्द कर रहे हैं, घूयकयघोरसद्दे - जहाँ उल्लू के घोर शब्द हो रहे हैं, वेयालुट्टियणिसुद्धकहकहियपहसिय - बेतालों के किये हुए तुमुल कहकहे और अट्टहास से, बीहणग-णिरभिरामे - भयानकता एवंअप्रियता-मनहूसी छा रही है, अइदुभिगंध - अत्यन्त दुर्गन्ध से युक्त, 'बीभच्छदरिसणिजे - बीभत्स-घृणास्पद दृश्य जहाँ हो रहा है, सुसाण - श्मशान में, वण - वन में, सुण्णघर - शून्य घरों में, लेण- लयन में-पर्वत के निकट बने हुए पाषाणगृह में, अंतरावण - दो ग्रामों के मध्य बने हुए विश्रामगृह आदि में, गिरिकंदर - पर्वत की गुफा में, विसमसावयसमाकुलासु - हिंसक प्राणियों से युक्त स्थान में, वसहिम - बस्ती में, किलिस्संता - क्लेश सहन करते हुए, सीयातवसोसिय-सरीरा - शीत और ताप से जिनका शरीर शुष्क हो गया है, दहच्छवी - जिनकी चमड़ी जल गई है, णिरयतिरियभव - नरक और तिर्यंच के भव के योग्य, संकडदुक्खसंभारवेयणिज्जाणि - संकट और दुःख समूह भोगने वाले, पावकम्माणि - पापकर्मों का, संचिणंता - संचय करते-उपार्जन करते हैं, दुल्लह - दुर्लभ हो जाता है जिनके लिए, भक्खण्ण-पाण-भोयणा - भोजन और पानी का खाना-पीना, पिवासिया - प्यास, झंझिया-- बुभुक्षित रहते, किलंता - पीड़ित हो कर, मंस-कुणिम-कंदमूल - मांस, मुर्दे का मांस और कन्दमूल, जं किंचिं - जो कुछ भी, कयाहरा - खा लेते हैं, उव्विग्गा - उद्विग्न, उप्पुया - उत्सुक-धैर्य रहित, असरणा.- आश्रय विहीन, अडवीवासं उति - वन में निवास करते हैं, वालसयसंकणिज्ज - सर्प आदि सैकड़ों भय से पूर्ण।
• भावार्थ - इसी प्रकार कई चोर, चोरी करने के लिए काल-अकाल में इधर-उधर घूमते ही रहते हैं। वे बस्ती से दूर भयानक स्थानों में भी घूमते रहते हैं। जैसे-श्मशान भूमि में (अथवा युद्ध-भूमि या
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org