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________________ १२० **** प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ३ ***** कच्छप, ओहार, ग्राह, तिमि, सुंसुमार स्वापद (व्याघ्र के समान हिंसक जीव) आदि परस्पर आक्रमण करने के लिए दौड़ते हुए समुद्र के जल को क्षुब्ध करते हैं। इस प्रकार घोर शब्द करता हुआ समुद्र, कायरजनों के हृदय को कम्पित कर देता है। वह महान् भय का जनक, अत्यन्त भयंकर, भयप्रद एवं त्रासदायक है। आकाश के समान अवलम्बन से रहित उस सागर का किनारा दिखाई नहीं देता । Jain Education International उपायणपवण-धणिय - णोल्लिय उवरुवरितरंगदरिय- अड्वेग-वेग-चक्खुपहमुच्छरंतं कच्छइ - गंभीर - विउल-गज्जिय- गुंजिय- णिग्घायगरु यणिवडिय सुदीहणीहारि-दूरसुच्चंत - गंभीर - धुगधुगंतसद्दं पडिपहरुभंत - जक्ख - रक्खस-कुहंडपिसायरुसिय-तज्जाय-उवसग्ग- सहस्संकुलं बहूप्पाइयभूयं विरइयबलिहोम-धूवउवयारदिण्ण-रुहिरच्चणाकरणपयत-जोगपययचरियं परियंत- जुगंत-कालकप्पोवमं - महाभीमदरिसणिज्जं दुरणुच्चरं विसमप्पवेसं दुक्खुत्तारं दुरासयं लवण-सलिलपुण्णं असियसिय-समूसियगेहि हत्थतरकेहिं वाहणेहिं अइवइत्ता समुद्दमज्झे हणंति, गंतूण- जणस्स - पोए परदव्वहरा णरा । शब्दार्थ - उप्पाइयपवण - उत्पात करने वाले वायु-आँधी, धणियणोल्लिय- अतिशय वेगवान्, उवरुवरि - एक-दूसरी पर गिरती हुई, तरंगदरिय अइवेग - तरंगमालाएं अतीव वेगपूर्वक, वेगचक्खूपहमुच्छरंत - वह वेग दृष्टि पथ को ढक देता है, कच्छइ - कहीं-कहीं, गंभीरविउलगज्जियगुंजिय - अत्यन्त गंभीरतापूर्वक गर्जन होता है, कहीं गुंजन होता है, णिग्घाय-गरुयणिवडियं - कोई भारी वस्तु आकाश से गिरी हो, सुदीहणीहारि उसकी सुदीर्घ प्रतिध्वनि, दूरसुच्वंतगंभीरधुगधुगंतसद्दं - धुगधुग ध्वनि करती हुई बहुत दूर तक फैलती है, पडिपहरुभतं - पथिकों के मार्ग को रोकने वाले, जक्खरक्खसकुहंडपिसायरुसिय- यक्ष, राक्षस, कुहंड - कुष्मांड -व्यंतर विशेष - पिशाच रुष्ट होकर, तज्जाय उवसग्ग-सहस्स- संकुलं - उत्पन्न किये हुए हजारों उपसर्ग से व्याप्त, बहुप्पाइयभूयं - जहाँ बहुत-से उत्पाद होते हैं, विरइय-बलिहोम-धूवडवयार दिण्णरुहिरच्चणा करणपयत-जोगपययचरियं - कहीं बलिकर्म, हवन, धूप, उपचार और रुधिर समर्पण से देव की अर्चना - पूजा होती है और भेंट चढ़ाने आदि तथा यागोचित क्रियाएं होती हैं, परियंतजुगंतकालकप्पोवमं युग का अन्त करने वाले कल्पांत - विनाश काल के समान, दुरंतं जिसका अन्त बड़ी कठिनाई से हो, महाणईणईवई - गंगादि महानदी और अन्य नदियों का जो पति है, महाभीमदरिसणिज्जं जो देखने में महान् भयंकर है, दुरणच्चरं - जिसमें जाना महाकठिन है, विसमप्पवेसं जिसमें प्रवेश करना अति कठिन है, दुक्खुत्तारं जिससे पार होना कठिन एवं दुःखपूर्ण है, दुरासयं जिसका आश्रय भी दुःखमय है, लवणसलिलपुण्णं - खारे पानी से भरा हुआ, असियसियसमूसियगेहि जिस पर काले और श्वेत वस्त्र के पाल बांधे हुए हैं ऐसे, हत्थंतरकेर्हि - जो वेगपूर्वक चलने वाला है ऐसे, वाहणेहिं - वाहन - - - For Personal & Private Use Only *** - - www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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