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________________ ८५ झूठा दोषारोपण करने वाले निन्दक ******** ******** ************************* ************* - "कालः सृजति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः। काल: सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः +॥" - - काल ही भूतों (जीवों) को बनाता है, काल ही नष्ट करता है और जब सारा जगत् सोता रहता · है, तब काल ही सदा जाग्रत रहता है। काल-मर्यादा का उल्लंघन कोई नहीं कर सकता। संसार में अनेकवाद चले और चल रहे हैं। कही काल को महत्त्व देता है, तो कोई स्वभाव को और कोई कर्म, पुरुषार्थ, नियति, प्रकृति और ईश्वर आदि को महत्त्व देता है। जैन दर्शन काल आदि पांचों समवायों को मानता है। पूर्वाचार्य ने कहा है कि - "कालो सहाव नियई पुवकयं पुरिसकारणेगंता। मिच्छत्तं ते चेव उ समासओ होंति सम्मत्तमिति॥" - काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकर्म और पुरुषकार-पराक्रम, ये पृथक्-निरपेक्ष हों, तो मिथ्यात्व हैं, किन्तु वे ही सब मिलकर सम्यक्त्व हो जाते हैं। . इस प्रकार भिन्न-भिन्न वादी, सृष्टि-निर्माण आदि विषयों में मिथ्या प्ररूपणा करके मृषावाद नाम का दूसरा पाप करते हैं। . .... झूठा दोषारोपण करने वाले निन्दक । अवरे अहम्मओ रायगुटुं अब्भक्खाणं भणंति अलियं चोरोत्ति अचोरयं करेंतं डामरिउत्ति वि य एमेव उदासीणं दुस्सीलोत्ति य परदारं गच्छइत्ति मइलिंति सीलकलियं अयं वि गुरुतप्पओ त्ति। अण्णे एमेव भणंति उवाहणंता मित्तकलत्ताई सेवंति अयं वि लुत्तधम्मो इमोवि विस्संभवाइओ पावकम्मकारी अगम्मगामी अयं दुरप्या बहुएसु य पावगेसु जुत्तोत्ति एवं जंपंति मच्छरी। भद्दगे वा गुणकित्ति-णेह-परलोयणिप्पिवासा एवं ते अलियवयणदच्छा परदोसुप्पायणप्पसत्ता वेढेंति। अक्खाइय बीएणं अव्याणं कम्मबंधणेण मुहरी असमिक्खियप्पलावा। शब्दार्थ - अवरे - दूसरे, अहम्मओ - अधर्म से, रायदुटुं - राज्य-दुष्ट-राज्य विरुद्ध, अब्भक्खाणं - अभ्याख्यान-दोषारोपण, भणंति - बोलते हैं, अलियं - मिथ्या, चोरोत्ति - चोर कहते, + यह श्लोक 'महाभारत" आदिपर्व (१। २४८, २४९) में इस प्रकार हैं - "कालःसृजति भूतानि, कालःसंहरते प्रजा। संहरन्तं प्रजाःकालं, कालःशमयते पुनः॥ कालोहि कुरुते भावान, सर्वलोके शुभाशुभान्।कालः सक्षिपते सर्वाः प्रजा विसृजते पुनः।। अर्थ- काल भूतों का सर्जन करता है, काल ही प्रजा का संहार करता है। उस संहारक काल को काल ही शान्त करता है। समस्त लोक के शुभाशुभ भावों को काल ही उत्पन्न करता है और समस्त प्रजा का संहरण भी काल ही करता है और फिर वही सर्जन भी करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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