SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नारकों को दिया जाने वाला लोमहर्षक दुःख *********************** ****************** दीन दशा, पार्लेति - पालते - भोगते हैं, जमकाइयतासिया - यमकायिक देवों द्वारा त्रासित होते हैं, भीया - भयभीत होकर, सद्दं करेंति शब्द करते हैं-चिल्लाते हैं । Jain Education International - भावार्थ - वे पापकर्म करके नरक में उत्पन्न हुए जीव पूर्वभव में किए हुए अपने पापकर्मों के संचय से नरक की महान् अग्नि में जलते हैं। उनकी आत्मा अत्यन्त संतापित होती है । वे कठोरतम एवं महान् असातावाली शारीरिक और मानसिक वेदना तीव्रता से वेदते हैं। इस प्रकार वे बहुत से पल्योपम और सागरोपम तक अपनी आयु के अनुसार करुण अवस्था में पड़े रहते हैं । यमकायिक- परम अधर्मी देवों के द्वारा त्रासित एवं भयभीत होकर वे चिल्लाते रहते हैं । विवेचन - नारक जीवों के पापकर्म का वर्णन करते हुए सूत्रकार ने बताया कि नरक की वेदना कितनी भयंकर और दीर्घकालिक है । मनुष्य भव में तो अग्नि में जलकर मनुष्य कुछ क्षणों में ही मर जाता है, किन्तु नरक में यहां की अग्नि से भी अत्यन्त तीव्रतम अग्नि है। उसमें लाखों-करोड़ों ही नहीं, पल्योपमों और सागरोपमों तक जलता ही रहता है, फिर भी नहीं मरता । मनुष्यों में तो किसी की करुणाजनक दशा देखकर दयालु लोग उसकी सहायता करते हैं, परन्तु नरक में उन परम अधर्मी देवों पर उन दुःखी नारकों की करुण पुकार का उल्टा प्रभाव पड़ता है । वे उसकी चिल्लाहट से पसीजते नहीं, प्रसन्न होते हैं । 1 पल्योपम - गणित की सीमा से बाहर - जिनके वर्षों की गिनती नहीं हो सके और पल्य की उपमा से ही जिसका काल जाना जा सके। पल्योपम-पल्य की उपमा । यथा - · चार कोस का लम्बा-चौड़ा एक योजन गहरा ऐसा एक पल्य । उसमें देवकुरु उत्तरकुरु के युगल मनुष्य के बच्चे के (जो अधिक से अइधक सात दिन का हो) बाल के टुकड़ों से वह पल्य इतना ठूंसठूंस कर भर दिया जाये कि जिसमें न तो हवा घुस सके, न पानी उतर सके और न आग ही उस ठोस स्थान पर कुछ जला सके। इस प्रकार भरे हुए पल्य में से सौ-सौ वर्ष में एक-एक बाल का टुकड़ा निकाला जाये। इस प्रकार निकालते-निकालते जब वह पल्य सर्वथा खाली हो जाये, उसे एक 'पल्योपम' कहते हैं । ३५ सागरोपम - दस कोटाकोटि पल्योपम का एक सागरोपम होता है। (भगवती ६-७ ) इतने दीर्घतर काल तक नैरयिक, बिना मरे ही भयंकर दुःख भोगा करते हैं । वे मरना चाहते हुए. भी अपनी पूरी आयु भोगे बिना नहीं मर सकते । 1 जमकाइयतासिया - यमकायिक देवों द्वारा त्रास पाये हुए। ये यमकायिक देव, इन्द्र के दक्षिण दिशा के लोकपाल महाराजा यम के अनुशासन में रहते हैं। इन यमकायिक देवों को 'परम-अधर्मी' भी कहते हैं । ये परम-अधर्मी देव-पन्द्रह प्रकार के होते हैं । यथा १. अम्ब - असुर जाति के देव। ये नारकी जीवों को ऊपर आकाश में ले जाकर एकदम छोड़ देते हैं। - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy