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________________ . प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रृ०२ अ. 270 *************************************************************** महाविडिमरुक्खक्खंधभूयं महाणगरपागार-कवाडफलिहभूयं रज्जु पिणिद्धो य इंदकेऊ विसुद्धणेगगुणसंपिणद्धं जम्मि य भग्गम्मि होइ सहसा सव्वं संभग्गमथियचुण्णियकुसल्लियं-पल्लट्ट-पडिय-खंडिय-परिसडिय-विणासियं विणय-सीलतवणियमगुण समूह। शब्दार्थ - झाणवरकवाडसुकयमांझप्पदिण्णफलिहं - रक्षा के लिए उत्तम ध्यान रूप सुविरचित कपाट वाला और अध्यात्म-सद्भावनामय चित्त रूप अर्गलामय, सण्णद्धोंच्छइयदुग्गईपहं - दुर्गति के मार्ग का अवरोधक-प्रतिबंधक, सुगइपहदेसगं - सुगति के मार्ग को दिखाने वाला, य - और, लोगुत्तमंलोक में सर्वोत्तम, वयमिणं - यह व्रत, पउमसरतलागपालिभूयं - पद्म-सरोवर की पाल तुल्य, महासगडअरगतुंबभूयं-बड़े रथ के चक्र में लगे हुए आरक-लट्ठों के नाभि तुल्य, महाविडिमरुक्खक्खंधभूयंअतिशय विस्तार वाले बड़े वृक्ष के स्कन्ध समान, महाणगरपागारकवाडफलिहभूयं - बड़े नगर के प्राकार में कपाट की आगल के समान, रज्जुपिणिद्धोइंदकेऊ - डोरी से बंधे हुए इन्द्र-ध्वज की तरह, विसुद्धणेगगुणसंपिणद्धं - अनेक विशुद्ध गुणों से युक्त, जम्मिय भग्गम्मि - जिसके भंग होने पर, सहसासव्वं - सहसा सभी, संभग्गमथियचुण्णियकुसल्लियं-पल्लट-पडिय-खंडिय-परिसडियविणासियं - संभग्न, मथा हुआ, चूर्ण किया हुआ, शल्ययुक्त, पर्वत के ऊपर से शिला की तरह धर्म से लुढका हुआ, गिरा हुआ, खण्डित बुरी हालत में पहुँचा हुआ, विणयसीलतवणियमगुण समूहं - विनय, शील, तप और नियम आदि गुण-समूह / भावार्थ - ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए धर्म-ध्यान रूपी कपाट है, जिससे विकार रूपी चोर प्रवेश ही नहीं कर सकते। उस कपाट के उत्तम-भावना रूपी अर्गला है, जो कपाट को खुलने ही नहीं देती। ब्रह्मचर्य व्रत दुर्गति के द्वार को बन्द करके पूर्णरूप से रोक देता है और सुगति के मार्ग को प्रदर्शित करता है। ब्रह्मचर्य व्रत इस लोक में सर्वोत्तम व्रत है। जिस प्रकार पद्म सरोवर एवं तालाब की रक्षा, उसकी पाल से होती है, उसी प्रकार अन्य सभी व्रतों की रक्षा ब्रह्मचर्य से होती है। अतएव ब्रह्मचर्य धर्म रूपी सरोवर की रक्षिका पाल के समान है। जिस प्रकार गाड़ी या रथ के पहिये के आरों को चक्र की नाभि धारण करती है, उसी प्रकार क्षान्ति आदि गुणों को ब्रह्मचर्य धारण करता है। जिस प्रकार पथिकों और पशु-पक्षियों के लिए विस्तृत एवं विशाल वृक्ष आधारभूत होता है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य भी सभी व्रतों का आधारभूत है। धर्म रूपी महानगर की रक्षा करने के लिए ब्रह्मचर्य व्रत, प्रकोट के कपाट की दृढ़ अर्गला के समान है। जिस प्रकार अनेक रस्सियों से बंधा हुआ इन्द्रध्वज, महोत्सव की शोभा बढ़ाता है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य व्रत भी अनेक विशुद्ध गुणों से सुशोभित है। ब्रह्मचर्य के खण्डित होने पर विनय, शील, तप और नियमादि समस्त गुणों का समूह, उसी प्रकार नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार कठोर भूमि पर पटका हुआ मिट्टी का घड़ा फूट जाता है। ब्रह्मचर्य नष्ट होने पर सभी गुण दही के समान मथित हो जाते हैं और चने के समान चूर्ण-विचूर्ण हो जाते हैं। शरीर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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