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________________ ६८ ****************** ************** भी नहीं। इसी प्रकार पुण्य और पाप भी नहीं मानते। पुण्य और पाप की मान्यता भी जीव के साथ ही सम्बन्ध रखती है। जो पाप और पुण्य मानते हैं, वे जीव को और उसके परलोक को भी मानते हैं और पाप-पुण्य के फलस्वरूप नरक और देवलोक भी मानते हैं। जो जीव का ही अस्तित्व नहीं मानते, उनको पाप-पुण्य और उसका फल मानने की आवश्यकता ही नहीं है। प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० २ ****** इसी प्रकार सुकृत - शुभ करणी (उत्तम आचार) और दुष्कृत - पापकृत्य (दुराचार ) . का फल भी वे नहीं मानते। इस मान्यता का मूल स्वामी जीव ही नहीं, उसका अमरत्व- शाश्वतपन ही नहीं और पुण्य-पाप ही नहीं, तो भले-बुरे कर्मों का फल और उससे प्राप्त स्वर्ग-नरक का अस्तित्व भी नहीं। मूल नाश के बाद शेष के लिए प्रश्न ही नहीं उठता। उन वामलोकवादी=शून्यवादी - लोकायत मतवालों का कहना है कि यह शरीर पांच महाभूत से बना है। पांच महाभूत ये हैं- पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश । इन पांच महाभूतों से बने हुए शरीर में हड्डी आदि कठिन भाग पृथ्वी का अंश है, रक्तादि अप - भूत का अंश है, उष्णता अग्नि का, श्वासोच्छ्वासादि चलन अंश वायु का और छिद्र रूप आकाश तत्त्व है। इन पांच भूतों से ही शरीर बना है और यह सारा क्रिया-कलाप इन्हीं से होता है। इन से भिन्न कुछ भी नहीं है। इन पांच भूतों का संयोग भी स्वभाव से ही होता है और वियोग भी स्वभाव से ही होता है । स्वभाव से सिवाय अन्य कोई कारण नहीं है । बौद्ध मतानुयायी कहते हैं कि पांच स्कन्ध हैं - १. रूप २. वेदना ३. विज्ञान ४. संज्ञा और ५. संस्कार । पृथिव्यादि एवं रूपादि-रूप-स्कन्ध हैं । सुख-दुःख उभय- वेदना - स्कन्ध हैं। रूपादि का ज्ञान - विज्ञान - स्कन्ध है । यह अमुक है, इत्यादि नाम रूप- संज्ञा - स्कन्ध है। पुण्य- अपुण्यादि धर्मसमुदाय - संस्कार-स्कन्ध है। बस ये पांच स्कन्ध ही सब कुछ हैं। इनसे भिन्न जीव या आत्मा नहीं है। बौद्धों में पांच स्कन्धों के अतिरिक्त मन को मानने वाला पक्ष भी है। कोई मतवादी मन को ही आत्मा मानते हैं। वे 'मनोजीविक' हैं । Jain Education International - कोई श्वासोच्छ्वास रूप वायु को ही जीव मानते हैं। ये कहते हैं कि प्राणवायु से ही शरीर की प्रवृत्ति होती है। यही जीवन है। वायु के निकल जाने पर मृत्यु हो जाती है। यह शरीर सादि है और विनाशशील है। इसकी उत्पत्ति और विनाश होता है। यह उत्पत्ति और विनाशरूप शरीर ही भव है। बस यह एक ही भव है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई भव- परभव नहीं है । इस भव के नष्ट होने के साथ सब कुछ नष्ट हो जाता है। असद्भाववादी का मत इमं वि बिईयं कुदंसणं असब्भाववाइणो पण्णवेंति मूढा - संभूओ अंडगाओ लोगो सयंभूणा सयं य णिम्मिओ एवं एवं अलियं पयंपंति । शब्दार्थ - इमं वि इस बिईयं दूसरे, कुदंसणं कुदर्शन का, असम्भाव-वाइणो - - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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