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________________ पंचम संवरद्वार का उपसंहार 333 **************************************************************** . खाबड़ शय्या एवं आसन तथा अत्यन्त कठोर, भारी, शीत, उष्ण, रूक्ष और इस प्रकार के अन्य अनिच्छनीय एवं दुःखदायक स्पर्श होने पर साधु को उन पर द्वेष नहीं करना चाहिए। हीलना, निन्दा, गर्हा और खिंसना नहीं करनी चाहिए। क्रोधित होकर उनका छेदन-भेदन और वध नहीं करना। उन पर घृणा भी नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार स्पर्शनेन्द्रिय सम्बन्धी भावना से भावित आत्मा वाला साधु, निर्मल होता है। उसका चारित्र विशुद्ध रहता है। मनोज्ञ और अमनोज्ञ, सुगन्धित या दुर्गन्ध युक्त पदार्थों में आत्मा को राग-द्वेष रहित रखता हुआ साधु, मन, वचन और काया से गुप्त एवं संवृत्त रहे और जितेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करे। पंचम संवरद्वार का उपसंहार एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मणवयकायपरिरक्खिएहिं णिच्चं आमरणंतं च एस जोगो णेयव्यो धिइमया मइमया, अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्सावी अंसकिलिट्ठो सुद्धो सव्वजिणमणुण्णाओ। . शब्दार्थ - एवमिणं - इस प्रकार, संवरस्स - संवर का, दारं - द्वार, सम्मं - भली-भाँति, संवरियंपालन किया हुआ, होइ - होता है, सुप्पणिहियं - सुप्रणिहित-सुरक्षित, इमेहिं - इन, पंचहिं - पांच, कारणेहिं - कारणों से, मणवयकायपरिरक्खिएहिं - मन, वचन और काया से रक्षित करता हुआ, णिच्चं - सदैव, आमरणंतं - मरण-पर्यन्त, एस - इस, जोगो - योग का, णेयव्वो - पालन करना चाहिए, धिइमया - धैर्य-सम्पन्न, मइमया - बुद्धिमान्, अणासवो- आस्रव-रहित, अकलुसो - कलुषता-रहित, अच्छिद्दो - छिद्र-रहित, अपरिस्सावी - कर्म प्रवेश से रहित, असंकिलिट्ठो - संक्लेश रहित, सुद्धो - शुद्ध, सव्वजिणमणुण्णाओ - सभी जिनेश्वरों द्वारा आज्ञापित। . भावार्थ - इस प्रकार विशुद्धता पूर्वक आचरण करने से इस संवर द्वार का सम्यक् रूप से पालन होकर सुरक्षित होता है। धृतिमन्त और सुमतिवान् साधु इन पांच कारणों (भावनाओं) से, मन, वचन और काया से इस योग (व्रत) की रक्षा करता हुआ मृत्युपर्यन्त पालन करे। .. यह व्रत, आस्रव-रहित, कलुष-रहित, छिन्द्र-रहित, कर्म-प्रवेश के मार्ग से रहित और संक्लेश से रहित है। यह सभी जिनेश्वरों द्वारा अनुज्ञापित है। अकलुष - निर्मल-रज-रहित। अच्छिद्र - किसी भी दोष के लिए जहाँ छिद्र-अवकाश नहीं हो। . अपरिस्रावी - समस्त गुणों का धारक, विशुद्ध परिणाम। असंक्लिष्ट - संक्लेशन-रहित, शुद्ध भावपूर्वक। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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