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________________ १७२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०४ **************************************************************** स्थिर तथा स्नायुओं से भली प्रकार बंधा होता है, पुरवरफलिहवट्टियभुया - नगर-के द्वार की उत्तम अर्गला-भोगल के समान उनकी भुजाएँ गोल होती हैं। . भावार्थ - पुनः उत्तरकुरु और देवकुरु के वनों में रहकर, बिना किसी वाहन के, अपने पैरों से चलने-विचरण करने वाले मनुष्यगण भी उत्तम भोगों से युक्त हैं। उनके अंग-प्रत्यंग पर भोगश्री को प्रकट करने वाले श्रीवत्स आदि उत्तम लक्षण होते हैं। भोगश्री (लक्ष्मी) उनके अधीन होती है। उनकी आकृति शुभ-प्रशस्त एवं उत्तम होती है। वे सौम्य तथा दर्शनीय होते हैं। उनके सभी अंगोपांग सुन्दर होते हैं। उनकी हथेलियाँ और पाँवतलियाँ, रक्त कमल के समान लाल, कोमल एवं मनोहर होती है। उनके पाँव कछुए के समान सुन्दर तथा सुप्रतिष्ठित होते हैं। उनके पाँवों की अंगुलियाँ क्रमशः बड़ीछोटी तथा पतली होती है। उनकी अंगुलियों के नाखुन उन्नत, पतले, चमकीले तथा ताम्र के समान वर्ण वाले होते हैं। पाँवों के टखने सुघटित एवं पुष्ट होते हैं। उनकी जंघाएँ हिरनी और कुरुविन्द वृक्ष के - समान गोल और क्रमशः स्थूल होती है। उनके घुटने, डिब्बे पर लगे हुए ढक्कन की मिली हुई सन्धि के समान, ऐसे पुष्ट होते हैं कि जिसके कारण हड्डी उभरी हुई दिखाई नहीं देती। उनकी चाल मस्त हाथी के समान, विक्रम एवं विलास युक्त होती है। उनका पुरुषांग उत्तम घोड़े के समान गुप्त होता है। उनका मलद्वार आकीर्ण जाति के घोड़े के समान निलेप होता है। उनकी कमर, उत्तम घोड़े और सिंह से भी अधिक गोल एवं पतली होती है। उनकी नाभि, गंगा के आवर्त के समान दक्षिणावर्त वाली और सूर्य की किरणों के प्रभाव से विकसित कमल के समान गंभीर होती है। उनका मध्य भाग संक्षिप्त, तिपाई, मूसल का मध्य भाग, काच का हत्था और शुद्ध स्वर्ण से बनी हुई तलवार की मूठ तथा उत्तम .. वज्र के समान कृश होता है। उनकी रोमावली परस्पर मिली हुई, स्वभाव से ही सुन्दर, सूक्ष्म, स्निग्ध, अत्यन्त कोमल, श्याम वर्ण वाली तथा मनोहर होती है। उनकी दोनों कुक्षियाँ, मत्स्य और पक्षी के समान पीन एवं उन्नत होती है। उनका पेट भी मत्स्य के पेट जैसा यथावस्थित रहता है। उनकी नाभि पद्म के समान प्रकट होती है। उनका पार्श्व भाग नीचे की ओर झुका हुआ होता है। वह संगत, सुन्दर, सुगढ़, प्रमाणयुक्त, उन्नत एवं मांसल होता है और रमणीय लगता है। उनकी पीठ भी मांसल होती हैं, जिससे हड्डियाँ दिखाई नहीं देती। उनका शरीर सोने के समान कान्तियुक्त निर्मल तथा नीरोग होता है। उनका वक्ष स्थल सोने की शिला के समान प्रशस्त, समतल, मांसल एवं विस्तीर्ण होता है। उनके हाथ के पहुंचे गाड़ी के जुए के समान मोटे और रमणीय होते हैं। उनकी हड्डियों का सन्धि स्थान अच्छे संस्थान से युक्त, सुसंगठित, गाढ़, स्थिर, स्नायुओं से बँधा हुआ एवं मनोज्ञ होता है। उनकी भुजाएँ नगर द्वार की उत्तम अर्गला के समान गोल होती है। भुयईसरविउल-भोगआयाणफलिउच्छूढ-दीहबाहू रत्ततलोवतिय मउयमंसलसुजायलक्खणपसत्थ-अच्छिद्दजालपाणी पीवरसुजायकोमलवरंगुली तंबतलिण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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