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________________ ५५ एकेन्द्रिय जीवों के दुःख ******************************************************** तक जीव अपर्याप्तक रहते हैं। यह अपर्याप्तकपन अन्तर्मुहूर्त तक ही रहता है। अन्तर्मुहूर्त के बाद पर्याप्तक हो जाते हैं। कई जीव अपर्याप्तक अवस्था में ही मर जाते हैं। प्रत्येक शरीरी - एक शरीर में एक ही जीव वाले 'प्रत्येक-शरीरी' कहलाते हैं। सभी जाति के जीवों में प्रत्येक शरीरी हैं। एक वनस्पंतिकाय ही ऐसी है कि इसमें प्रत्येक के सिवाय साधारण शरीरी जीव भी होते हैं। साधारण शरीरी - वे जीव जो एक ही शरीर में अनन्त हों। वनस्पतिकाय के जीवों में साधारण शरीरी जीव भी होते हैं। इनको 'निगोदिये जीव' भी कहते हैं। जीवों के पिण्डभूत शरीर को 'निगोद' कहते हैं। इस लोक में असंख्य सूक्ष्म निगोद हैं और सारे लोकाकाश में भरे हुए हैं। बादर निगोद कन्दमूल आदि जमीकन्द और वृक्ष की कोंपलें - अत्यन्त मुलायम अवस्था वाली वनस्पति इत्यादि में सूई के अग्रभाग पर आवे उतनी वनस्पति में अनन्त जीव होते हैं। - पूर्वाचार्य कहते हैं कि - लोकाकाश के जितने (असंख्य) प्रदेश हैं, उतने ही सूक्ष्म निगोद के गोले हैं। प्रत्येक गोले में असंख्यात निगोद हैं और प्रत्येक निगोद में अनन्त जीव हैं। भूतकाल, भविष्यकाल और वर्तमान के समय काल का सूक्ष्मतम अंश) को एकत्रित करने पर जितने हों, उनसे अनन्तगुण जीव, एक-एक निगोद में होते हैं। अनंतकाय - साधारण शरीरी जीवों को अनन्तकाय भी कहते हैं। असंख्यात काल - पांचों स्थावरकाय के प्रत्येक शरीरी जीवों की कायस्थिति उत्कृष्ट असंख्य काल, असंख्य अवसर्पिणी असंख्य उत्सर्पिणीकाल जितना है। अनंत काल - साधारण वनस्पति का उत्कृष्टकाल अनन्त है और अनन्त उत्सर्पिणी अनन्त --अवसर्पिणी, अनन्त कालचक्र की है। पूर्वाचार्यों का मत है कि निगोद के जीवों में ऐसे जीव भी अनन्त हैं, जो निगोद से कभी बाहर निकले ही नहीं और निकलेंगे भी नहीं। उन्हें 'अव्यवहार राशि' के जीव कहते हैं। भगवती सूत्र शतक २८ उ. १ में जीवों के पापोपार्जन के स्थान की प्ररूपणा करते हुए आठ विकल्प बतलाये हैं। उसमें पहला भेद -"सव्वे वि ताव तिरिक्खजोणिएसु होजा"-अर्थात् सभी तिर्यंच योनि में थे। शेष सातों भेदों में भी तिर्यंच योनि तो है ही। इस प्रकार तिर्यंच योनि का निवास स्थान सर्वाधिक है और ऐसी उत्कृष्टम कायस्थिति मात्र निगोद में ही है। ." कु हाल-कुलिय-दालण-सलिल-मलण-खंभण-रुं भण-अणलाणिलविविहसत्थ-घट्टण-परोप्पराभिहणणमारणविराहणाणि य अकामकाई परप्पओगोदीरणाहिं य कजप्पओयणेहिं य पेस्सपसुणिमित्तं-ओसहाहार-माइएहिं उक्खणण उक्कत्थण-पयण-कुट्टण-पीसण-पिट्टण-भजण-गालण-आमोडण-सडण-फुडण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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