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________________ ५६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० १ **************************************************************** भंजण-छयण-तच्छण-विलुंचण-पत्तज्झोडण-अग्गिदहणाइयाई, एवं ते भवपरंपरादुक्ख-समणुबद्धा अडंति संसारबीहणकरे जीवा पाणाइवायणिरया अणंतकालं। शब्दार्थ - कुद्दाल-कुलिय-दालण - कुदाल और हल से विदारण करना, सलिल - पानी में, मलण - मर्दन करना, खुंभण - क्षुब्ध करना, संभण - अवरुद्ध, अणल - अग्नि, अणिल - वायु, विविहसत्य - विविध प्रकार के शस्त्र, घट्टण - संघटन-हनन, परोप्पराभिहणण - परस्पर एक-दूसरे का हनन, मारण - मारन, विराहणाणि - अनेक प्रकार से विराधना, अकामकाई - बिना प्रयोजन, परप्पओगोदीरणाहिं - दूसरों के प्रयोग एवं उदीरणा से, कज्जप्पओयणेहिं - कार्य एवं प्रयोजन से, पेस्सपसुणिमित्तं - नौकर और पशुओं के लिए, ओसहाहारमाइएहिं - औषधि और आहार आदि के लिए, उक्खणण - उखाड़ना, उक्कत्थण - छाल उतारना, पयण - पकाना, कुट्टण - कूटना-खांडना, पीसण - पीसना, पिट्टण - पीटना, भज्जण - भुनना, गालण - गलाना, आमोडण - मरोड़ना, सडणस्वतः फटना, फुडण - टुकड़े होना, भंजण - तोड़ना, छयण - छेदन करना, तच्छण - छीलना, विलुचण - नोचना, पत्तज्झोडण - पत्रादि तोड़कर गिरना, अग्गिदहणाइयाई - आग में जलाना आदि एवं - इस प्रकार, ते - वे, भवपरंपरा - भवों की परम्परा में, दुक्खसमणुबद्धा - दुःखों से युक्त, . अडंति - भ्रमण करते हैं, संसारबीहणकरे - भयंकर संसार में, जीवा - जीव, पाणाइवायणिरया - . प्राणातिपात में रत, अणंतकालं - अनन्तकाल तक। भावार्थ - पृथ्वीकाय में उत्पन्न जीव कुदाल एवं हल से विदारण किये जाते हैं। अप्काय में जीवों का मर्दन किया जाता है, आलोडन से क्षुब्ध किया जाता है और प्रवाह रोक कर रुंधन भी किया जाता है। तेउकाय और वायुकाय में जीवों का स्वकाय और परकाय रूप विविध शस्त्रों से हनन किया जाता है, ये जीव परस्पर एक-दूसरे का हनन करते हैं, मारते हैं। ये सब दुःख बिना किसी प्रयोजन के भी दूसरों के हनन-चलनादि व्यापार और उदीरणा से होते हैं और नौकर और पशु आदि के लिए खाने पीने तथा औषधि आदि कार्य तथा प्रयोजन से हनन किया जाता है। वनस्पतियाँ उखाडी जाती हैं. उनकी छाल उतारी जाती है, पकाना. कटना. पीसना. पीटना. आग में भनना. गलाना, मरोड़ना आदि क्रिया से तथा फटने, टुकड़े होने, टूटने, छेदन करने, छीलने, नोचने, पत्रपुष्पादि झड़कर गिराने आदि क्रियाओं से जीवों की घात की जाती है। अग्नि में जलाने आदि अनेक प्रकार से जीवों की हिंसा में रत रहने वाले जीव, जन्म-मरण की. परम्परा में दुःख भोगते हुए अनन्तकाल तक इस भयंकर संसार में भटकते रहते हैं। विवेचन - उपरोक्त सूत्र में पृथ्वीकाय से लगाकर वनस्पतिकाय तक के पांचों स्थावरकाय जीवों को अपने दुष्कर्मों के उदय से प्राप्त होने वाले दुःख के निमित्तों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। जीव-हिंसा के फलस्वरूप पापी जीव, नरक में दुःख भोगने के बाद तिर्यंच योनि में भी उनकी दु:ख परम्परा चालू रहती है। यह उपरोक्त वर्णन का सार है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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