________________ हेय-ज्ञेय और उपादेय के तेतीस बोल 293 **R RRRRRRRRRRRRRRRRRR************************************* अणगारगुणा, अट्ठावीसा आयारकप्पा, एगुणतीसा पावसूया, तीसं मोहणीयट्ठाणा, एगतीसाए सिद्धाइगुणा, बत्तीसा य जोगसंग्गहे सुरिंदा तित्तीसा आसायणा, एग्गाइयं करित्ता एगुत्तरियाए वुड्डिए तीसाओ जाव उ भवे तिगाहिया विरइपणिहीस * य एवमाइसु बहुसु ठाणेसु जिणपसत्थेसु* अवितहेसु सासयभावेसु अवट्ठिएस संकं कंखं णिराकरित्ता सहहए सासणं भगवओ अणियाणे अगारवे अलुद्धे अमूढमणवयणकायगुत्ते। शब्दार्थ - एगवीसा सबला - इक्कीस शबल दोष, बावीसं परिसहा - बाईस परीषह, तेवीसए सूयगडझयणा - सूयगडांग सूत्र के तेईस अध्ययन, चउवीसविहा देवा - चौबीस प्रकार के देव, पण्णवीसाए भावणा - पच्चीस भावना, छव्वीसा उद्देसणकाला - छब्बीस उद्देशन काल, सत्तावीसा अणगारगुणा - अनगार के सत्ताईस गुण, अट्ठवीसा आयारकप्पा - अट्ठाईस आचार-प्रकल्प, एगुणतीसा पावसूया- उनतीस पाप-श्रुत, तीसं मोहणीयट्ठाणा - तीस मोहनीय स्थान, एंगतीसाए सिद्धाइ गुणासिद्धों के इकत्तीस गुण, बत्तीसा, जोगसंग्गहे - बत्तीस योग-संग्रह, बत्तीसा सुरिदा - बत्तीस सुरेन्द्र, तित्तीसा आसायणा - तेतीस आशातना, एग्गाइयं - एक से लेकर, करित्ता एगुत्तरियाए वुड्डिए - क्रमशः एक-एक की वृद्धि करते हुए, तीसाओ जाव उ भवे तिगाहिया - यावत् तीन अधिक तीस अर्थात् तेतीस होते हैं, इन सब में तथा, विरइ पणिहीसु - निवर्त्तन योग्य स्थानों से निवृत्त होना, एवमाइसु बहुसु ठाणेसु - इस प्रकार के बहुत-से स्थानों में, जिणपसत्थेसु अवितेहसु सासयभावेसु अवट्ठिएसु - तीर्थंकरों के शासित, सत्य और शाश्वत-नित्य भाव अवस्थित-सदा समान रहने वाले हैं उनमें, संकं कंखं णिराकरित्ता - शंका और कांक्षा को हटाकर, सद्दहए सासणं भगवओ - भगवान् के शासन की श्रद्धा करना, अणियाणे - निदान-रहित, अगारवे - गारव-रहित, अलुद्धे - लोभ-रहित, अमूढमणवयणकायगुत्ते - मूर्खता-रहित और मन, वचन और शरीर से गुप्त। . यहाँ प्रतियों में पाठ भेद हैं - 'सुरिंदा' शब्द बीकानेर और पूज्य श्री घासीलालजी म. सा. वाली प्रति में 'जोग संगहे' के बाद है, किन्तु श्री ज्ञानविमलसूरि वाली प्रति और पूज्य श्री हस्तीमल जी म. सा. वाली प्रति में 'तित्तीसा आसायणा' के बाद आया है। इसमें तेतीस बोलों ने बत्तीस सुरेन्द्र और एक नरेन्द्र इस प्रकार तेतीस माने। पू० श्री हस्तीमल जी म. सा. के भावार्थ में तो 'बत्तीस या चौसठ इन्द्र' लिखा है, परन्तु अन्वयार्थ में तेतीस आशातना के बाद 'सुरेन्द्र आदि को एक आदि संख्या युक्त करके..........लिखा है। हमारी दृष्टि में 'सरिंदा' शब्द 'जोगसंगहे' के बाद और 'तित्तीसा आसायणा' के पूर्व होना चाहिए। सुरेन्द्रों में नरेन्द्र को मिलाकर तेतीस करना उचित प्रतीत नहीं होता। फिर बहुश्रुत कहें वही सत्य है। 'तिगाहिया' के स्थान पर 'एगाहिया' शब्द श्री ज्ञानविमलसूरि वाली प्रति में है जो समझ में नहीं आया। * "विरइपणिहीसु' के आगे 'अविरतीसु' - शब्द भी है। *"जिणपसाहिएसु"-पाठ भी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org