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________________ 238 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०२ *********************************************************** जैसे - मुख की सुन्दरता एवं सौम्यता से स्त्री चन्द्रमुखी', तालाब को 'समुद्र' के.समान और ज्वार को 'मोती' के समान कहना-उपमा सत्य' है। उपरोक्त दस प्रकार की भाषा, विविध अपेक्षाओं से युक्त होने और बोलने वाले के मन में मृषावाद के भाव नहीं होने से-सत्य-भाषा है। - देविंदनरिंदभासियत्थं - देवेन्द्र और नरेन्द्र का भासित अर्थ। देवेन्द्र और नरेन्द्र को सत्य भाषण का परिणाम भासित हो चुका है। देवेन्द्र-पद और चक्रवर्ती तथा वासुदेव का उत्तम पद, उन साधनों को ही प्राप्त होता है, जिन्होंने धर्म की साधना की है, सत्यव्रत का पालन किया है और वर्तमान में भी वे सत्य का आदर करने वाले हैं। वेमाणियसाहियं - वैमानिक देवों द्वारा साधित। वैमानिक देवों ने भी सत्य का साधन किया है। चार जाति के देवों में वैमानिक देव उत्तम हैं और उनमें भी क्रमशः उच्च स्थानों के देव, उच्च साधना के फलस्वरूप होते हैं। सम्यग् दृष्टि, देश-विरत और सर्वविरत आत्माएं धर्माचरण के फलस्वरूप उच्चकोटि के वैमानिक देवों में उत्पन्न होती है। उनके लिए वहाँ भी सत्य-भाषण उपादेय होता है। इसलिए सत्य-साधकों में वैमानिक देवों की मख्यता बताई गई है। अणेगपासंडिपरिग्गहियं - 'अनेकपाखण्डिभिः परिगहितं तेऽपि सत्यभाषिणा चरणशरणं कर्वन्ति. नानाविधव्रतिभिरंगीकत' - अनेक पाखण्डियों ने भी सत्य का ग्रहण किया है। वे भी सत्यभाषी के चरण की शरण लेते हैं। नाना प्रकार के व्रतियों ने सत्य को अंगीकार किया है। 'पाषंड' शब्द का अर्थ / 'व्रतधारी' भी होता है और 'अन्ययूथिक' भी। अन्ययूथिकों ने भी सत्य को स्वीकार किया है। जैसे आजीवक मत के उपासक भी त्रसजीवों की हिंसा नहीं करते, बड़, पीपल, गूलर आदि के फल नहीं खाते और कर्मादान का सेवन नहीं करते (भगवती 8-5) वैसे वे और अन्य मत वाले भी सत्य को : स्वीकार करते हैं-यद्यपि वे असम्यग्दृष्टि हैं। प्रथम गुणस्थान में भी मन और वचन के आंठों योग माने.. ही हैं और 'सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्' का उनका घोष भी है ही। अतएव अपनी मान्यता के अनुसार अन्य-मतावलम्बियों को सत्य का ग्राहक मानना अनुचित नहीं होगा। तत्त्व ज्ञानीगम्य। - सदोष सत्य का त्याग सच्चं वि य संजमस्स उवरोहकारगं किंचि ण वत्तव्वं हिंसा सावजसंपउत्तं भेयविकहकारगं अणत्थवायकलहकारगं अणज्जं अववाय-विवायसंपउत्तं वेलंब ओजधेजबहुलं णिल्लज लोयगरहणिजं दुद्दिष्टुं दुस्सुयं अमुणियं, अप्पणो थवणा परेसु णिंदा ण तंसि मेहावी, ण तंसि धण्णो, ण तंसि पियधम्मो, ण तंसि कुलीणो, ण तंसि दाणवई, ण तंसि सूरो, ण तंसि पडिरूवो, ण तंसि लट्ठो, ण पंडिओ, ण बहुस्सुओ ण वि य तंसि तवस्सी, ण यावि परलोयणिच्छयमई असि, सव्वकालं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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