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________________ 222 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०१ ************************************************************ वि भेसणतज्जणतालणाए भिक्खं गवेसियव्वं, ण वि गारवेणं ण वि कुहणयाए ण वि वणीमयाए ण वि गारवकुहणवणीमयाए भिक्खं गवेसियव्वं, ण वि मित्तयाए ण वि पत्थणाए ण वि सेवणाए ण वि मित्तपत्थणसेवणाए भिक्खं गवेसियव्वं, अण्णाए अगढिए अदुढे अदीणे अविमणे अकलुणे अविसाई. अपरितंतजोगी जयणघडणकरणचरियविणयगुणजोगसंपउत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए णिरए।.. शब्दार्थ - हीलणाए - हीलना करके, शिंदणाए - निन्दा करके, गरहणाए - गर्हणा करके, हीलणणिंदणगरहणाए - हीलना, निन्दा और गर्दा, तीनों एक साथ करके, भिक्खं -- भिक्षा की, गवेसियव्वं - गवेषणा नहीं करे, भेसणाए - भय दिखाकर, तज्जणाए - तर्जन, डांट-फटकार बतलाकर, तालणाए - थप्पड़ आदि मारकर, भेसणतज्जणतालणाए - भय, तर्जना और ताड़ना, भिक्खं - भिक्षा की, ण गवेसियव्वं - गवेषणा नहीं करे, गारवेण - जाति आदि का गर्व करके, कुहणयाए. - दरिद्रता दिखाकर, वणीमयाए - भिखारी के समान दीन वचन उच्चारण करके, गारवकुहणवणीमयाएगर्व, दरिद्रता और रंकपना करके, भिक्खं - भिक्षा की, ण गवेसियव्वं - गवेषणा नहीं करे, मित्तयाए - मित्रता बतलाकर, पत्थणाए - प्रार्थना करके, सेवणाए - सेवा करके, मित्तपत्थणसेवणाए - मित्रता, प्रार्थना और सेवा करके, भिक्खं - भिक्षा की, ण गवेसियव्वं - गवेषणा नहीं करे, अण्णाए - अपना परिचय न देते हुए, अगढिए - आहार में आसक्त नहीं होता हुआ, अदुढे - आहार और दाता पर द्वेष नहीं करता हुआ, अदीणे- दीनता रहित, अविमणे - उदासीनता रहित, अकलुणे - करुणा जनक शब्द न बोलता हुआ, अविमाई - विषाद न करता हुआ, अपरितंतजोगी,- धर्मकार्य में अश्रान्त मन वचन काया का योग वाला, जयण - संयम में प्रयत्नशील, घडणकरण - अप्राप्त गुणों की प्राप्ति के लिए उद्योग करने वाला, चरियविणयगुणजोगसंपउत्ते - विनय और क्षमा आदि गुणों से युक्त होकर, भिक्खू - साधु, भिक्खेसणाए णिरए - भिक्षा की गवेषणा करे। भावार्थ - दाता की हीलना, निन्दा और गर्दा करके या तीनों एक साथ करके आहार लेने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। गृहस्थ यदि आहार देना नहीं चाहे, तो उसे भयभीत करके या डाँट-फटकार कर और मार-पीट कर या तीनों एक साथ करके आहार पाने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। अपनी जाति आदि का गर्व करके या दरिद्रता का प्रदर्शन कर अथवा भिखारी के समान दीनता दिखाकर अथवा ये तीनों करके तथा मित्रता बतला कर, प्रार्थना कर और सेवा करके, या तीनों करके आहार लेने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। अज्ञात रह कर (अपना परिचय नहीं देता हुआ) अनासक्त रह कर, आहार और दाता पर द्वेष नहीं रखता हुआ, दीनता, उदासीनता, दयनीयता और विषाद-रहित होकर, साधना में बिना खेदित हुए और बिना रुके चलता रहे। अप्राप्त गुणों की प्राप्ति के लिए उद्योग करता हुआ, विनय एवं क्षमादि गुणों से युक्त होकर, भिक्षु को आहार की गवेषणा करनी चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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