________________ 307 ************************************** साधु के उपकरण ************************* भावार्थ - निष्ठा के साथ विधिपूर्वक संयम का पालन करने वाले पात्रधारी श्रमणों के लिए जो भाजन और भंड-उपधि तथा उपकरण होते हैं, वे इस प्रकार हैं - पात्र, पात्र-बन्धन, पात्र-केसरिका, पात्र-स्थापन, तीन पटल, रजस्त्राण, गोच्छक, तीन चादरें, रजोहरण, चोलपट्टक और मुखवस्त्रिका आदि। ये सभी उपकरण संयम की वृद्धि के लिए ग्रहण करने चाहिए तथा राग-द्वेष से रहित होकर वायु, धूप, डांस, मच्छर और शीत से रक्षण पाने के लिए इन उपकरणों को रखना चाहिए। साधु को अपने उपकरणों का सदैव प्रतिलेखन, प्रस्फोटन और प्रमार्जन करना चाहिए और सतत अप्रमत्त रह कर भण्डोपकरण को रखना और ग्रहण करना-उठाना चाहिए। - विवेचन - साधु को आहार-पानी आदि लाने के लिए पात्र भी चाहिये और पात्र सम्बन्धी वस्त्र भी चाहिए। शरीर-रक्षा के लिए आवश्यक वस्त्र और जीव-रक्षा के लिए रजोहरणादि भी आवश्यक है। इस सूत्र में विशिष्ट जिनकल्पी के सिवाय पात्रधारी साधुओं के उपकरणों के नाम बताये हैं। यथा - .' पात्र-आहारादि लाने के लिए काष्ठ, मिट्टी या तुम्बे के पात्र। पात्र-बन्धन - पात्रों को बाँधने का वस्त्र। पात्र-केसरिका - पात्र पोंछने के लिए वस्त्र का टुकड़ा। पात्र स्थापन - पात्र के नीचे बिछाने का वस्त्र। पटल - पात्र ढंकने का वस्त्र। रजस्त्राण - पात्र पर लपेटने का वस्त्र। गोच्छक - पात्र आदि साफ करने का वस्त्र का टुकड़ा। प्राच्छादक - पछेवड़ी-ओढ़ने की चादरें। रजोहरण - भूमि, शय्या, पाट आदि प्रमार्जन करने का ओघा। चोलपट्टक - गुप्तांग ढकने का अधो-वस्त्र। मुखवस्त्रिका - वायुकायादि जीवों की रक्षा के लिए मुंहपत्ति। प्रतिलेखन, प्रमार्जन और प्रस्फोटन का स्वरूप उत्तराध्ययन अ० 26 गा० 24 से 28 तक से जान लेना चाहिए। उपरोक्त उपकरणों के सिवाय 'आदि' शब्द से मात्रक भी ग्रहण किया जाता है। इन उपकरणों को आवश्यकतानुसार संयम-वृद्धि एवं रक्षा के लिए और असह्य वायु, शीत, उष्णादि से अपने को बचाने के लिए, राग-द्वेष रहित होकर ग्रहण करना चाहिए और इनकी प्रतिलेखना, प्रमार्जना और ग्रहण-स्थापन सदैव सावधानीपूर्वक होनी चाहिए, जिससे विराधना से बचा जा सके। - (प्रथम संवरद्वार पृ० 229 तथा तृतीय संवरद्वार पृ० 255 में भी उपकरणों का उल्लेख हुआ है)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org