SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिंसक जातियाँ ************************* शब्दार्थ - असुभलेस्स-परिणामे - अशुभ-बुरी लेश्या-पापी विचार के भावों से ओतप्रोत जीव, जलयर - जलाशय में रहने वाले मच्छ आदि, थलयर - पृथ्वी पर चलने वाले गाय, बैंस, भेड़, बकरे आदि, सणफय - जिनके पांवों में नख हैं ऐसे चोते, सूअर आदि, उरग - सांप आदि पेट के बल रेंगकर चलने वाले, खहयर - खेचर-आकाश में उड़ने वाले पक्षी, संडासतुंड - संडासी के समान जिनका मुंह (चोंच) है-ऐसे पक्षी (ढंक, कंक आदि), जीवोवग्धायजीवी - इन सभी प्राणियों की बात करके आजीविका करने वाले लोग, सण्णी य असण्णिणो - संज्ञी और असंजी, पजत्ते अपजत्ते - पर्याप्त और अपर्याप्त, एए - इन जीवों की और, एवमाई - इस प्रकार के, अण्णे - अन्य जीवों के, पाणाइवायकरणं - प्राणों का अतिपात-हिंसा, करेंति - करते हैं। पावा - पाप करने वाले, पावाभिगमा - पाप को ही उपादेय मानने वाले, पाव-रुई - जिनकी रुचि ही पापमय है, पाणवहकयरई - प्राणवध करके ही जो सुख मानते हैं -प्रसन्न होते हैं, पाणवहरूवाणुट्ठाणा - प्राणियों के वध रूप अनुष्ठान करने वाले, पाणवह-कहासु - प्राणवध की कथा कहानी में, अभिरमंता - मन लगाने-रस लेने वाले, बहुप्यगारं -- बहुत प्रकार का, पाव करेत्तु - पाप करके, तुट्ठा -- संतुष्ट-प्रसन्न, होइ - होते हैं। भावार्थ - जिनकी आत्मा पापमय विचारों में लगी रहती है, ऐसे पापोजन जलचर, स्थलचर, नखी, नभचर, तीक्ष्ण एवं दृढ़ चोंच वाले पक्षी, सांप आदि जीवों की घात करके अपनी आजीविका चलाते हैं। वे संज्ञा (मन वाले) और असंज्ञी. पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों और ऐसे अनेक प्रकार के जीवों की हिंसा करते हैं। वे पापीजन पाप को ही उपादेय मानते हैं। उनकी रुचि पाप में ही रहती है। वे प्राणवध करके प्रसन्न होते हैं। उनका कार्य अथवा अनुष्ठान प्राणियों की घात रूप ही है। जीववध की कहानी में उनको बहुत रुचि होती है। वे अनेक प्रकार का पापकर्म करके संतुष्ट (प्रसन्न) होते हैं। विवेचन - आजीविका के लिए, स्वादवश और शरीर-पुष्टि के लिए जीवों की घात करने के अतिरिक्त धन संग्रह करने के लिए भी लोग जीवों को मारते हैं और कई लोग जीवों को मार कर के हाथ बेचकर धन कमाते हैं। व्यक्तिगत कसाई के धन्धे के अतिरिक्त अब तो कुछ समूह एवं समितियाँ मिलकर पूर्ण सहयोग से इस प्राणी-संहारक धन्धे को बढ़ा रहे हैं। यहाँ तक कि धर्मप्रधान एवं आर्यसंस्कृति का निजधाम जाने वाले भारत की भारतीय सरकार स्वयं मांस का निर्यात करती है और विदेशी मुद्रा प्राप्त कर राष्ट्र को समृद्ध बनाना चाहती है। वह नहीं सोचती कि पाप का परिणाम कभी सुखसमृद्धिदायक नहीं हो सकेगा। कभी तात्कालिक धन लाभ हो भी जाये, तो आगे सैकड़ों गुणा हानि का बीजारोपण धी तत्काल हो जाता है। इसके अतिरिक्त हिंसा के निम्न कारण भी है - "पावाभिगमा" - "पापमेव अभिगमं उपादेयं येषां"-जिसे पापमय प्रवृत्ति ही उपादेय लगती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy