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________________ २४ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ ******************** * ******************************** मांस भक्षक हैं और न पशु-पक्षियों की हिंसा करने वाली है। वैसे बौद्ध मतावलंबी भी अहिंसक कहलाते हैं, किन्तु वे नाम-मात्र के अहिंसक हैं। उनके साधु (लामा) भी मांस भक्षी हैं, तब अनुयायी तो निश्चय ही मांसाहारी हैं और अपने गुरुओं के लिए पशु-हत्या करके मांसाहार तैयार करते हैं। भारत के बाहर ऐसी एक भी जाति जानने में नहीं आई--जो अहिंसक हो। कुछ व्यक्ति पूर्व के सुसंस्कार से या किसी निमित्त से प्रेरित होने पर अहिंसक बन सकते हैं, किन्तु वे अपवाद रूप हैं। अधिकांश जातियां मांसभक्षी हैं। भारत में भी अधिक संख्या मांस-भक्षियों की है। हमारे मालव, मेवाड़, मारवाड़, गुजरात, सौराष्ट्र आदि में ब्राह्मण निरामिषभोजा हैं और पशुधातक नहीं है, किन्तु कश्मीर, पूर्वदेश आदि में - ब्राह्मण भी मांसाहारी एवं शिकारी हैं। तात्पर्य यह कि भारत के जैन, वैष्णव जैसी जातियों को छोड़कर मनुष्य की शेष सभी जातियां मांसाहारी हैं। मूलपाठ में बताई हुई जातियों के नाम प्राय: देश सापेक्ष हैं। इनमें से कुछ देश भारत में हैं और कुछ बाहर के। कई देशों का परिचय टीका से भी नहीं मिलता। टीकाकार ने भी मूल का रूपान्तर ही प्रस्तुत किया है। कुछ जातियाँ एवं देश तो हमारे पड़ोसी और जाने माने हैं। एक समय वह भी था कि ये बाहर के सारे अनार्य देश, भारत के अधिपत्य में थे। चक्रवर्ती और वासुदेव ही नहीं, अन्य प्रतापी शासकों ने भी इन देशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया था। इतना होते हुए भी आयत्व की सीमा बहुत कम रही। भारत में भी म्लेच्छत्व का प्रसार अधिक रहा। ___तीर्थंकर भगवन्तों और अन्य पहर्षियों के समय अहिंसा का प्रचार बहुत हुआ। महाराजा श्रेणिक, कुणिक, उदयन आदि जिनोपासकों ने अहिंसा का प्रचार किया और उस क्षेत्र में हिंसा में कमी आई, किन्तु हिंसा सर्वथा बन्द नहीं हो सकी। महाराजा श्रेणिक ने अपनी सत्ता से राजाज्ञा प्रचारित कर 'अमारि' घोषणा करवाई, किन्तु लुके-छिपे वहाँ भी कसाइखाना चलता रहा और कालसौरिक सैकड़ों भैंसों का नित्य वध करता रहता था। उसके बाद जैनाचार्यों के उपदेश से हिंसा में कहीं-कहीं कुछ रोक लगा दी गई, किन्तु विदेशों से भारत में आई हुई यवन, आंग्ल आदि जातियों ने हिंसा में अधिक वृद्धि कर दी और इस धर्म-शून्य भौतिकवादी जमाने ने तो भारत को भी अन्य मांस-भक्षी देशों से होड़ लगाने को लालायित कर दिया। अब यहां भी बड़े-बड़े भीमकाय कसाइखाने खोले जा रहे हैं। जलयर-थलयर-सणप्फ-योरग-खहयर-संडासतुंड-जीवोवग्घायजीवी सण्णी य असण्णिणो पजत्ते अपजत्ते य असुभलेस्स-परिणामे एए अण्णे य एवमाई करेंति पाणाइवायकरणं। पावा पावाभिगमा * पावरुई पाणवहकयरई पाणवहरूवाणुट्टाणा पाणवहकहासु अभिरमंता तुट्ठा पावं करेत्तु होइ य बहुप्पगारं। * किसी-किसी प्रति में यहाँ 'पावमई' शब्द भी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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