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________________ 256 प्रश्नव्याकरण सत्र 2 अ०३ . ********************************** ********* ** ****** आयारे चेव भावतेणे य सहकरे झंझकरे कलहकरे वेरकरे विकहकरे असमाहिकरे सया अप्पमाणभोइ सययं अणुबद्धवेरे य णिच्चरोसी से तारिसए णाराहए वयमिणं। शब्दार्थ - जे - जो, पीढ-फलग-सिज्जा-संथारग-वत्थ-पाय-कंबल-मुहपोत्तिय पायपुंछणाइपीढ़, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, मुंहपत्ति और पादपोंछन आदि, भायण भंडोवहिउवगरणं - भोजन, भंडोपकरण और उपधि, असंविभागी - संविभाग नहीं करता, असंगहरुईपरिमित उपकरणों का और यथायोग्य शिष्यादि का यथोचित संग्रह नहीं करता, तवतेणे - तप का चोर, वइतेणे - वचन का चोर, रूवतेणे - रूप का चोर, य - और, आयारे - आचार का, भावतेणे - . भाव का चोर, सद्दकरे - रात्रि के समय जोर-जोर से शब्द करने वाला, झंझकरे - सावध वचन बोलने वाला या गच्छ में फूट डालने वाले वचन बोलने वाला, कलहकरे - कलह करने वाला, विकहकरे - विकथा करने वाला, असमाहिकरे - असमाधि करने वाला, सया - सदा, अप्पमाणभोइ - अपरिमाण भोजी, सययं - सदा, अणुबद्धवेरे - वैर बढ़ाने वाला, य - और, णिच्चरोसी - सदा कोप करने वाला, से - वह, तारिसए - ऐसा साधु, ण आराहए - आराधक नहीं हो सकता। भावार्थ - जो साधु, पीढ, फलंक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, मुंहपत्ति, पादपोंछनादि / तथा भण्डोपकरण और उपधि आदि का संविभाग नहीं करता और संयमोपकारक उपकरण तथा शिष्य के संग्रह की रुचि नहीं रखता. जो तप का चोर है. वचन का चोर है. रूप का चोर है. आचार का चोर है और भाव का चोर है, जो प्रहरभर रात व्यतीत होने पर भी जोर-जोर से बोलता है, गच्छ में भेद उत्पन्न करता है, क्लेश करता है, वैर उत्पन्न करता है, विकथा करता है, अशान्ति उत्पन्न करता है, जो सदैव अपरिमाण भोजी (प्रमाण से अधिक खाता) है, वैर बढ़ाने में सदैव संलग्न रहता है और रोष में सदा तप्त रहता है (कुपित रहता है) ऐसा साधु, इस व्रत का आराधक नहीं होता। विवेचन - तपस्तेन - तप का चोर। शारीरिक दुर्बलता देखकर कोई पूछे-"तपस्वी संत आप ही होंगे?' तब वह - 'साधु तो तपस्वी होते ही हैं, कहे या मौन रहकर पूछने वाले के मन में अपने कों 'निरभिमानी तपस्वी' मनवाने का दंभ करे अथवा तपस्वी नहीं होते हुए भी अपने को तपस्वी बतावे, तो वह तप का चोर है। वचनस्तेन - वचन-सिद्धि के अभाव में अपने को वचन-सिद्ध बताने वाला अथवा वाक्-छल से लोगों को छलने वाला। . रूपस्तेन - रूप का चोर। साधु का रूप धारण करके असाधुता का सेवन करने वाला-दुराचारी। आचारस्तेन - शिथिलाचारी और अनाचारी होकर भी अपने को उत्तम आचारवान् के रूप में प्रसिद्ध करने वाला। ___भावस्तेन - श्रुतज्ञानादि विशिष्ट गुणों का सद्भाव न होने पर भी अपने को बहुश्रुत, गीतार्थ, विशिष्ट ज्ञानी एवं उत्तम आराधक बतलाने वाला। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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