________________ व्रत विराधक और चोर 255 **************************************************************** - दुष्ट पशु श्वान सिंहादि से रक्षा करने के लिए, कीचड़ एवं दलदल, विषम (उबड़खाबड़ भूमि) और जल में प्रवेश करते समय शरीर रक्षार्थ तथा तप-संयम की साधना में लाठी उपयोगी कही गई है। दण्ड साधारणतया रोगी, वृद्ध एवं दुर्बल शरीरी के लिए आवश्यक हो सकता है, सभी साधुओं के लिए, रजोहरण के समान सदैव रखना आवश्यक नहीं है। चोलपट्टक - नग्नता ढकने के लिए, धोती के स्थान पर पहिनने का साधुओं का अधोवस्त्र। .: पादपोंछन - पांवों की धूल दूर करने का-पांव पोंछने का वस्त्र या ऊनी साधन-प्रमार्जनी। . उपधि - 'उप सामीप्येन संयम धारयति पोषयति चेत्यर्थः स च पात्रादिरूप। संयम के समीप रहे, संयम में सहायक बने, संयम का पोषण करे, वह पात्रादि रूप उपधि है (ओघनियुक्ति भा० गा० 14 पत्र 12) इसके दो भेद हैं - औधिक और औपग्रहिक। सामान्य रूप से सभी के सदैव उपयोग में आने वाले साधन को 'औधिक' और कारण से किसी के कभी काम में आने वाले को 'औपग्रहिक' कहते हैं। औधिक उपधि - 1. पात्र 2. पात्रबन्ध 3. पात्रस्थापन (पात्र के नीचे बिछाने का कपड़ा) 4. पात्रकेसरिका (पात्र पोंछने का कपड़ा) 5. पैटल (पात्र ढकने का वस्त्र) 6. रजस्त्राण (पात्र पर लपेटने का वस्त्र) 7. गोच्छक (पात्रादि साफ करने का वस्त्र) 8-10. तीन चादरें 11. रजोहरण 12. मुखवस्त्रिका 13. मात्रक और 14. चोलपट्टक। इन में से जिनकल्पी मुनि कम से कम रजोहरण और मुखवस्त्रिका, ये दो और अधिक से अधिक 1 से लगाकर 12 तक के उपकरण रख सकते हैं। अन्त के दो सहित 14 स्थविरकल्प साधु के लिए औधिक उपकरण हैं। साध्वियों के विशेष हैं (औघनि० गा० 666 से 722 तक) ___ औपग्रहिक - संस्तारकोत्तरपट्ट, वर्षाकाल में विशेष उपकरणं लेना पड़े, दण्ड, यष्टि, चर्म, .. चर्मकोश, नखशोधनी, चिलिमिली आदि। ___ उपकरण - जो ज्ञानादि में उपयोगी हो, ज्ञान-दर्शन चारित्र के धारक शरीर एवं ज्ञानादि साधना में उपकारी हो, वह 'उपकरण' है। यदि ज्ञानादि में उपकारी नहीं हो, तो वह उपकरण नहीं होकर 'अधिकरण'-शस्त्र या कर्मबन्ध का कारण होता है (ओघनि० गा०७४०-७४१)। "दाणविप्पणासो' का अर्थ-'दत्तादानलोपः' - दिये हुए दान का अपलाप करना (दाता के नाम को छिपाना) किया है। इसका दूसरा अर्थ-'दान-भावना नष्ट करना' भी हो सकता है। जैसे- 'साधु के अतिरिक्त अन्य किसी को दान देना, पाप का पोषण करना है, 'जो किसी को देता है, उसे दान का फल वापिस लेने के लिए जन्म धारण करना पड़ता है' आदि असत्य प्रचार करके श्रोता की दान-भावना नष्ट करना। यह अर्थ भी हो सकता है। व्रत विराधक और चोर जे वि य पीढ-फलग-सिज्जा-संथारग-वत्थ-पाय-कंबल-मुहपोत्तिय-पायपुंछणाइ भायण भंडोवहिउवगरणं असंविभागी असंगहरुई तवतेणे य वइतेणे य रूवतेणे य .. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org