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________________ आराधक की वैयांवृत्य विधि 259 **************************************************************** यात्रा करना आदि अनेक कार्य करते थे। धर्म-साधना का मुख्य आधार मंदिर-मूर्ति बन चुका था। अन्यथा यह अर्थ यहाँ लागू ही कैसे हो सकता है? क्योंकि इस सूत्र में वैयावृत्य के पात्रों और वैयावृत्य के साधनों का उल्लेख किया गया है। वैयावृत्य के पात्र हैं - 'अच्चंतबाल-दुब्बल..........संघ' और वैयावृत्य के साधन हैं-'उवहिभत्तपाण........।' सोचना चाहिए कि उपधि और भातपानी-आहारादि की आवश्यकता मानव शरीरधारी अत्यन्तबाल से लगाकर संघ तक के साधुओं को होती है, मूर्ति को नहीं। "भत्तपाणपीढ यावत् उवगरण" में से कोई भी वस्तु मूर्ति के लिए आवश्यक या व्यवहार के योग्य नहीं है। ये सब साधुओं के लिए ही उपयोगी हैं। अतएव यहाँ मूर्ति अर्थ उचित नहीं होगा। स्थानांग सूत्र स्थान 10, भगवती श० 25 उ० 7 तथा व्यवहार सूत्र उ० 10 में वैयावृत्य करने योग्य पात्र दस ही बताये हैं। यथा - 1. आचार्य 2. उपाध्याय 3. स्थविर 4. तपस्वी 5. ग्लान 6. शैक्ष 7. कुल 8. गण 9. संघ और 10. साधर्मिक। तत्त्वार्थ सूत्र अ० 9 सूत्र 24 में भी ये ही पात्र बताये हैं। इसमें से किसी में भी जिन-प्रतिमा का उल्लेख नहीं है। इस प्रकार वैयावृत्य के स्थान पर मूर्ति अर्थ अनुचित, असंगत एवं असत्य है। यहाँ ज्ञान प्राप्त्यर्थ-ज्ञान प्राप्ति. के लिए अर्थ ठीक रहता है। उत्तराध्ययन अ० 1 गा० 46 में लिखा है कि - 'पसण्णा लाभइस्संति विउलं अट्ठियं सुयं' - वैयावत्यादि गण से प्रसन्न हुए गरु, विपुल अर्थयुक्त श्रुतज्ञान का लाभ देते हैं। अतएव ज्ञानार्थी के लिए वैयावृत्य आवश्यक है और वैयावृत्य निर्जरा का भी कारण है। 'चेइय?' का अर्थ- आचार्यादि की प्रसन्नता के लिए भी किया है। उनकी प्रसन्नता श्रुत-दान का कारण होती है। रायपसेणी सूत्र में भगवान् महावीर के वर्णन में 'चेइय' का अर्थ टीकाकार ने-'चैत्यं . सुप्रशस्त मनोहेतुत्वात्' - शुभ एवं प्रशस्त मन के हेतु किया है। साधर्मिक - 'एक श्रद्धारुचिः साधर्मिकः श्रुतलिंग प्रवचनैक: रीति।' जिनकी श्रद्धा एक हो, जिनका श्रुत, लिंग और प्रवचन एक प्रकार का हो, जिनका आचार-विचार एक समान हो। व्यवहार सूत्र उ० 2 भाष्य गाथा 10 में साधर्मी के 12 भेद इस प्रकार किये हैं - . 1. नाम साधर्मिक - समान नाम वाला, दो व्यक्तियों का एक ही-सा नाम होना। जैसे देवदत्त नामक मनुष्य से दूसरे देवदत्त नाम वाले व्यक्ति का नाम एक ही समान होता है। (अथवा-नाममात्र का साधर्मी। वास्तविक जैन से नाममात्र के जैन की जैन कहलाने मात्र की साधर्मिकता होती है।)। 2. स्थापना साधर्मिक - साधर्मी के चित्र-मूर्ति आदि सद्भाव या किसी अक्ष (पासा) वराट (कौड़ी) में साधर्मी की असद्भाव स्थापना करना। 3. द्रव्य साधर्मिक - जिसमें भविष्य में साधर्मिकता के गुण प्रकट होंगे अथवा जिसमें भूतकाल में साधर्मिकता के गुण थे (वर्तमान में साधर्मिकता के भाव से रहित)। 4. क्षेत्र साधर्मिक - समान क्षेत्रिय-एक देश के निवासी। 5. काल साधर्मिक - एक काल में उत्पन्न अथवा समकालीन। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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