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________________ 196 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०५ ********************************** कौटुम्बिक, अमात्य (मन्त्री) ये सभी और इसी प्रकार के अन्य लोग, धन का संचय करते हैं। किन्तु वह धन उनको दुःख से बचा नहीं सकता, रक्षक नहीं होता। धन-संचय से उत्पन्न पाप के कटु फल का परिणाम बड़ा भयंकर होता है। उसका अन्त आना अत्यन्त कठिन है। यह परिग्रह अध्रुव है, अनित्य है, अशाश्वत है, पाप-कर्म का मूल है। ज्ञानियों के लिए त्यागने योग्य है। विनाश का मूल है। जीव के लिए वध, बन्धन और क्लेश का कारण है। अनन्त क्लेशों का हेतु है। धन, कनक और रत्नों का समूह रूप परिग्रह का संग्रह करने वाले लोभ ग्रस्त होकर समस्त दुःखों के आश्रयभूत ऐसे संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। ___ विवेचन - इस सूत्र में कर्मभूमि के मनुष्यों, चक्रवर्ती नरेन्द्र, वासुदेवादि महर्द्धिक मनुष्यों और अधिकारियों तथा सामान्य मनुष्यों की धनोपासना और उसके परिणाम स्वरूप होने वाली सुदीर्घ दुःख परम्परा का उल्लेख किया गया है। विविध कलाएँ भी परिग्रह के लिये परिग्गहस्स य अट्ठाए सिप्पसयं सिक्खए बहुज़णो कलाओ य बावत्तरि सुणिउणाओ लेहाइयाओ सउणरुयावसाणाओ गणियप्पहाणाओ चउसद्धिं य महिलागुणे रइजणणे सिप्पसेवं असि-मसि-किसि-वाणिज्जं ववहारं अत्थसत्थइसत्थच्छरुप्पगयं विविहाओ य जोगजुंजणाओ अण्णेसु एवमाइएसु बहुसु कारणसएसु जावज्जीवं णडिज्जए सचिणंति मंदबुद्धी परिग्गहस्सेव य अट्ठाए करंति पाणाण-वहकरणं अलियणियडिसाइससंपओगे परदव्वाभिज्जा सपरदारअभिगमणासेवणाए आयासविसूरणं कलहभंडणवेराणि य अवमाणणविमाणणाओ इच्छामहिच्छप्पिवाससययतिसिया तण्णगेहि लोहघत्था अत्ताणा अणिग्गहिया करेंति कोहमाणमायालोहे अकित्तणिज्जे परिग्गहे चेव होंति णियमा सल्ला दंडा य गारवा य कसाया सण्णा य कामगुणअण्हगा य इंदियलेस्साओ सयण-संपओगा सचित्ताचित्तमीसगाई दव्वाइं अणंतगाइं इच्छंति परिघेत्तुं सदेवमणुयासुरम्म लोए लोहपरिग्गहो जिणवरेहिं भणिओ णत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अत्थि सव्वजीवाणं सव्वलोए। शब्दार्थ - परिग्गहस्स अट्ठाए - परिग्रह के लिए, सिप्पसयं - सैकड़ों प्रकार के शिल्पों की, सिक्खए - शिक्षा ग्रहण करते हैं, बहुजणो - बहुत-से लोग, कलाओ - कलाओं की, य - और, बावत्तरि-बहत्तर, सुणितणाओ - सुनिपुण, लेहाइयाओ-लेख आदि की क्रियाएँ, सउणरुयावसाणाओपक्षियों के शब्द के विज्ञानपर्यन्त की शिक्षा, गणियप्पहाणाओ - गणित-प्रधान कलाओं की शिक्षा, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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