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पापियों को प्राप्त संसार-सागर
१४३ * HARRAIMARAHA
********************************* प्राप्ति ही इस संसार-समुद्र में उन्मग्न और निमग्न होना (नीचे जाना और ऊपर उठना) है। यह संसारसमुद्र, चार गति रूप चारों दिशाओं में व्याप्त, अनन्त अपरम्पार एवं विस्तृत है और अत्यन्त रौद्र (भयंकर) है। संयम-हीन जीवों के लिए इस संसार-समुद्र में कोई आश्रय स्थान नहीं है। उनकी रक्षा नहीं हो सकती। सर्वज्ञ के बिना इसका यथार्थ ज्ञान भी नहीं होता। यह संसार समुद्र, चौरासी लाख जीव योनि से परिपूर्ण है। अज्ञानियों के लिए यह पूर्णरूप से अन्धकारमय है। अज्ञानी जीव सदैव भयभ्रांत तथा आहारादि संज्ञाओं से युक्त होकर अनन्त काल निवास करते हैं। उद्विग्न प्राणियों का यह संसारसमुद्र ही निवास स्थान है।
विवेचन - अदत्तादान-इस सूत्र में चौर्यकर्म करने वाले पापियों को होने वाले नरकादि के दुःखों का वर्णन करने के बाद सूत्रकार ने उनको प्राप्त होने वाले अनन्त संसार-समुद्र का वर्णन किया है। ___ इस पाठ में चार गति का वर्णन-क्रम, पहले पूर्वानुपूर्वी दिया है, जैसे - ‘णरगतिरिय-णर-अमर' और बाद में पश्चानुपूर्वी - 'अमर-णर-तिरिय-णिरयगइ' दिया है।
जीव योनि - तेजस् और कार्मण शरीर वाले जीव, औदारिक आदि शरीर के योग्य स्कन्धों से जिस स्थान पर मिल कर जुड़ते हैं, वह स्थान 'योनि' (उत्पत्ति स्थान) कहलाता है। व्यक्ति की अपेक्षा योनियाँ असंख्य हैं, किन्तु समान वर्णादि से जाति की विवक्षा करके अनेक की एक में गणना की गई है (प्रज्ञापना सूत्र वृत्ति तथा द्रव्य लोक-प्रकाश श्लोक ४३-४४)।
चौरासी लाख- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय-इन चार स्थावरकाय की प्रत्येक . की सात लाख से कुल २८ लाख, प्रत्येक वनस्पति काय की १० लाख और साधारण वनस्पति की १४ लाख। इस प्रकार पांच स्थावरकाय की कुल ५२००००० जाति हुई। तीन विकलेन्द्रिय की प्रत्येक की २ लाख से छह लाख, नारक, देव और तिर्यंच पंचेन्द्रिय के प्रत्येक के चार-चार लाख से १२००००० और मनुष्य की १४००००० इस प्रकार कुल ८४००००० जातियाँ हुई।
प्रज्ञापना सूत्र पद ९ में योनि के भेद-सचित्त, अचित्त और मिश्र, शीत, उष्ण और शीतोष्ण, संवृत्त, विवृत्त और उभय तथा-कूर्मोन्नता, संखावृत्त और वंशीपत्रा, भेद किये हैं। .
शुभाशुभ योनि के विषय में निम्न गाथाएँ हैं - "सीयादीजोणीओ, चउरासीई असयसहस्सेहिं। असुहाओय सुहाओ, तत्थ सुहाओ इमा जाण॥१॥ असंखाउ मणुस्सा, राइसरसंखमादियाऊणं। तित्थयरणामगोअं, सव्वसुहं होइ णायव्वं ॥२॥ तत्थवि य जाइसंपण्णाइ, सेसाओ हुंति असुहाओ। देवेसु किव्विसाई, सेसाओ हुंति असुहाओ॥३॥
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