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________________ 286 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०४ **************************************************************** विवेचन - गृहस्थाश्रम में भोगे हुए काम-भोगों का स्मरण नहीं करने रूप इस चौथी भावना का मुख्य सम्बन्ध ब्रह्मचर्य की छठी वाड़ से है। पंचम भावना-स्निग्ध सरस भोजन-त्याग / पंचमगं आहार-पणीय-णिद्ध-भोयण-विवजए संजए सुसाहू ववगय-खीर-दहि सप्पि-णवणीय-तेल्ल-गुल-खंड-मच्छंडिग-महु-मज-मंस-खजग-विगइ-परिचियकयाहारे ण दप्पणं ण बहुसो ण णिइगंण सायसूपाहियं ण खद्धं तहा भोत्तव्वं जहा से जायामायाय भवइ, ण य भवइ विब्भमो ण भंसणा य धम्मस्स। एवं पणीयाहारविरइ-समिइ-जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमण-विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते। शब्दार्थ - पंचमगं - पांचवीं, आहार-पणीय-णिद्ध-भोयण-विवजए - प्रणीत भोजन सरस आहार और स्निग्ध भोजन का परिहार करने वाला, संजए - संयमी, सुसाहू - सुसाधु, ववगय - दूर हुआ, खीर - दूध, दहि - दही, सप्पि - घी, णवणीय - नवनीत-मक्खन, तेल्ल - तेल, गुल - गुड़, खंड - खाँड, मच्छंडिग - मिश्री, महु - मधु, मज - मद्य, मंस - मांस, खजग - खाँड से लिप्त पकवान, विगइ - शरीर में विकार उत्पन्न करने वाला, परिचिय कयाहारे - त्याग करे, ण दप्पणं - दर्प कारक आहार न करे, ण बहुसो- बहुत बार नहीं खावे, ण णिइगं-नित्य सरस आहार न करे, ण सायसूपाहियंन दाल और शाक की अधिकता वाला, ण खद्धं - और अधिक भी नहीं, तहा भोत्तव्वं - उतना खाना चाहिए, जहा - जिससे, जायामायाय - संयम-यात्रा का निर्वाह, भवइ - हो जाय, ण य भवइ विब्भमोविभ्रम-मन की चंचलता नहीं हो, ण भंसणा य धम्मस्स - ब्रह्मचर्य-धर्म का नाश भी नहीं हो, एवं - इस प्रकार, पणीयाहार-विरइसमिइ-जोगेण - प्रणीताहार विरति रूप समिति के योग से युक्त, भाविओभावित, भवइ - होती है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, आरयमण-विरयगाम-धम्मे - मैथुन से निवृत्ति और इन्द्रिय-लोलुपता से रहित, जिइंदिए - जितेन्द्रिय, बंभचेरगुत्ते - ब्रह्मचर्य से गुप्त। भावार्थ - पांचवीं भावना प्रणीत-सरस आहार का त्याग करना है। जो आहार घृतादि स्निग्ध पदार्थों से पूर्ण हो, जिसमें रस टपकता हो, ऐसे विकारवर्द्धक आहार का साधु को त्याग करना चाहिए। खीर, दही, दूध, मक्खन, तेल, गुड़, शक्कर, मिश्री, मधु, मद्य, मांस और रस पिलाये हुए खाजे आदि मिष्टान्न का आहार करने से शरीर में विकार उत्पन्न होता है। इसलिए ऐसे प्रणीत रस का त्याग करना चाहिए। जिस आहार में खाने से दर्प-विकार उत्पन्न हो और वृद्धि हो, उसका नित्य सेवन नहीं करे, न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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