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________________ सत्य की महिमा 233 *************** ******************************************* वस्तु का प्ररूपक है, विशुद्ध अर्थ बताने वाला है। सत्य तत्त्व को प्रकाशित करने वाला है। इस जीव लोक के समस्त पदार्थों का प्रकाशक सत्य वचन ही है। सत्य-भाषण किसी भी प्रकार के विसंवाद से रहित है। यथार्थ एवं मधुर है। विवेचन - प्रथम अहिंसा नामक संवरद्वार के बाद दूसरा सत्यभाषण नामक संवरद्वार है। यदि सत्यभाषण नहीं हो, तो अहिंसा-संवर अपूर्ण रह जाता है। मिथ्यावाद स्व और पर का अहितकर्ता है, जो अहितकारी हो, वह पूर्ण अहिंसक कैसे हो सकता है ? अतएव पूर्ण अहिंसक के लिए सत्यवादी होना अति आवश्यक है। इसके बिना सर्वविरति नहीं हो सकती। इसीलिए सूत्रकार ने सत्यव्रत नामक दूसरे धर्मद्वार का प्रतिपादन किया है। सत्य वचन शुद्ध है, क्योंकि सत्यभाषी के मन में मृषावाद का मल नहीं होता। उसकी आत्मा असत्य के पाप से मलिन नहीं होती। अतएव सत्य शुद्ध है और जो शुद्ध है, वह पवित्र है, हितकारी है यावत् मुक्ति का हेतु है। उत्तम मनुष्य ही सत्य-भाषण करते हैं। यह सत्य-वचन, जाति आदि से अधम कहे जाने वाले मनुष्य को भी उत्तम बना देता है। जो उत्तम पुरुष हो गए हैं, उन सभी ने सत्य का आचरण किया था। असंख्य देवों के स्वामी इन्द्र और मनुष्यों के स्वामी नरेन्द्र-चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव आदि तथा संतजनों ने सत्य-भाषण का आदर किया है। जो उत्तम साधु हैं, उनका तो यह महाव्रत है। वे इसका पालन जीवन पर्यन्त त्रिकरण-त्रियोग से करते हैं। तपस्या भी सत्याचरण युक्त होने पर शुद्ध होती है। नियम भी सत्यता युक्त हो, तभी प्रशस्त होते हैं। जिस तप और नियम में सत्य नहीं, वे असम्यक् एवं अकल्याणकारी होते हैं। स्वर्ग एवं मुक्ति रूपी सुगति का उपदेश भी सत्य-वचन से ही होता है। मृषावाद एवं मिथ्या-भाषण से सुगति का उपदेश नहीं हो सकता। विद्याधर मनुष्य, आकाशगामिनी-विद्या की साधना करते हैं, वह आकाशगामिनी विद्या भी सत्य. भाषी के ही सिद्ध होती है। इस विद्या के प्रभाव से वे आकाश-मार्ग से यथेच्छ विचरण करते हैं। सत्यभाषण ही स्वर्ग एवं मुंक्तिमार्ग का प्रदर्शक है। .. सत्यभाषी सरल होता है, क्योंकि उसके मन में माया-कूट-कपट एवं छल रूपी वक्रता नहीं होती। ठय़ाई या वंचना रूपी कुटिल-भाव नहीं होते। इसलिए सत्य सरल होता है। वस्तु स्वरूप को यथातथ्य बताने वाला भी सत्य-वचन ही है। असत्य-भाषण के द्वारा न तो सम्यक् अर्थ प्रकाशित होता है और न तत्त्व ही। जहाँ असत्य का निवास हो, वहाँ तत्त्व अथवा लोक... का स्वरूप सत्य एवं यथार्थ रूप से प्रकट नहीं हो सकता, फिर वह असत्य भले ही उस व्यक्ति का अपना हो या उसे किसी अन्य व्यक्ति से प्राप्त हुआ हो-अनन्तर या परम्पर। पच्चक्खं दयिवयं व जं तं अच्छेरकारंग अवत्यंतरेसु बहुएसु मणुसाणं, सच्चेण महासमुहमज्झे वि मूढाणिया वि पोया सच्चेण य उदगसंभमम्मि वि ण वुज्झइ ण य मरंति थाहं ते लहंति। सच्चेण य उदगसंभमम्मि वि ण वुज्झइ ण य मरंति थाहं ते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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